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________________ 78/ श्री दान-प्रदीप करके दीक्षा लेकर तपस्या के द्वारा समग्र कर्मों का क्षय करके मोक्षपद को प्राप्त किया। पर दुर्बुद्धि दुष्कर्म-युक्त होने से मुनिवरों के उपदेश रूपी निर्मल जलधारा को प्राप्त करके भी चिकने मलिन वस्त्रों की तरह निर्मलता को प्राप्त नहीं हुआ। प्रत्युत वह ज्ञानियों की निन्दा करने लगा-"अहो! ये साधु कपोल-कल्पना के द्वारा कैसा कथन करते हैं?" ऐसे कर्मों से उत्पन्न अपार पाप-समूह के द्वारा भारी होकर वह अनंत संसार में अनंत समय तक दुःखी अवस्था में भ्रमण करता रहेगा। हे धन श्रेष्ठी! तुम्हारे इस धनशर्मा नामक पुत्र ने भी पूर्वजन्म में अचल की तरह मूर्खतावश ज्ञान की निन्दा की थी। उन्हीं कर्मों के कारण वह बुद्धिरहित पैदा हुआ है। मनुष्य जैसा बीज बोता है, वैसा ही फल पाता है।" इस प्रकार गुरुमुख से श्रवण करके धनशर्मा सद्बुद्धि से विचार करने लगा-"अहो! ज्ञान की आशातना प्राणियों के लिए कैसी दुःखदायक है!" इस प्रकार गहराई से विचार करने पर उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। उसने हर्षित होते हुए मुनिश्री से कहा-“हे स्वामी! आपका वचन सत्य है। मुझे अब इस अपार संसार में भ्रमण करने से डर लगता है। अतः आपश्री मुझ पर प्रसन्न होकर मुझे बतायें कि मेरा ज्ञानावरणीय कर्म किस प्रकार क्षय को प्राप्त हो?" मुनिश्री ने फरमाया-"ज्ञानदान करने से ज्ञानावरणीय कर्म क्षय को प्राप्त होता है। पर अभी तो तुम साक्षात् ज्ञान का दान करने में समर्थ नहीं हो। अतः अभी तो तुम ज्ञान और ज्ञानी का बहुमान करो और ज्ञानियों की अन्न, जल, वस्त्र, पुस्तकादि से सहायता करो।" इस प्रकार गुरु-वचनों को अंगीकार करके और उनके मुख से श्रावकधर्म को स्वीकार करके पिता और पुत्र हर्षित होते हुए अपने घर की और लौटे। जिस प्रकार लकड़ी को छील-छीलकर पतला किया जाता है, उसी प्रकार धनशर्मा ने आत्म-कल्याण के लिए अपने दुष्कर्मों की निन्दा कर-करके अपने ज्ञानावरणीय कर्म को पतला किया अर्थात् हल्का किया। मोक्ष रूपी माल को खरीदने के लिए धन के समान पुस्तकों को लिखवा-लिखवाकर हर्षपूर्वक उसने ज्ञानियों को प्रदान की। विशिष्ट बुद्धियुक्त बनकर उसने निर्दोष वस्त्र, औषध, भोजनादि के द्वारा ज्ञानियों को बहुमानपूर्वक सहायता प्रदान की। इस प्रकार मन, वचन, काया की शुद्धि के द्वारा ज्ञानाराधना करके वृद्धियुक्त शुभ भावना द्वारा स्थिर बुद्धियुक्त वह मरकर सौधर्म देवलोक में देव बना। विजय का जीव धनशर्मा देव सौधर्म देवलोक से च्यवकर साकेत नामक नगर में जिनधर्म में तत्पर, बुद्धिमान और व्यापारियों में अग्रसर धनमित्र नामक व्यापारी बना। विशेष
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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