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________________ 80 / श्री दान- प्रदीप में कष्ट प्राप्त होता है। इस विषय पर एक दृष्टान्त है, जो इस प्रकार है किसी एक स्वच्छ गच्छ में कोई मुनि कालिक श्रुत को सन्ध्या के समय पढ़ रहे थे। रात्रि की पौरुषी व्यतीत हो जाने पर भी विस्मृति के कारण उन्होंने श्रुताभ्यास से विराम नहीं लिया। शास्त्र - रस उसे ही कहा जाता है, जिसमें अन्य रस का पता ही न चले। उन मुनि को इस प्रकार अभ्यास करते देखकर किसी सम्यग्दृष्टि देवी ने विचार किया -"इस साधु को प्रमादी देखकर कोई क्षुद्र देवता इसे छलेगा । अतः मैं इसको सजग करूं।" ऐसा विचार करके उसने ग्वालन का रूप बनाया और सिर पर छाछ की मटकी रखकर "छाछ ले लो छाछ ले लो" - इस प्रकार उच्च स्वर में चिल्लाने लगी। मुनि के उपाश्रय के पास-पास ही वह गमनागमन करने लगी। उसके उच्च स्वर के कारण मुनि का श्रुताभ्यास स्खलना को प्राप्त हुआ। अतः उन्होंने उस ग्वालन से कहा - " हे मूर्खा ! क्या यह छाछ बेचने का समय है?” उस ग्वालन रूपी देवी ने कहा - "क्या यह आपके कालिक श्रुत का समय है?" यह सुनते ही मुनि ने उपयोगपूर्वक विचार किया - " यह सामान्य स्त्री नहीं है । " फिर मध्यरात्रि के समय का निश्चय करके मुनि ने मिथ्यादुष्कृत्य दिया । उस समय देवी ने प्रत्यक्ष प्रकट होकर कहा - "हे मुनि! आगे से ऐसा कभी मत करना, क्योंकि क्षुद्र देवता प्रमादी साधु को छलते हैं ।" इस प्रकार साधु को शिक्षा देकर वह निपुण देवी अदृश्य हो गयी । फिर योग्य समय में श्रुतका अभ्यास करते हुए मुनि ने अनुक्रम से सद्गति को प्राप्त किया । अतः प्रत्येक बुद्धिमान को योग्य समय पर श्रुत का अभ्यास करना चाहिए, जिससे इस भव में विघ्नरहित जीवन जी सके और परभव में भी सम्पदा की प्राप्ति हो । विनय–श्रुतज्ञान ग्रहण करनेवाले शिष्य को निष्कपट भाव से गुरु का विनय करना चाहिए। विनय से ही ज्ञान उत्तरोत्तर वृद्धि को प्राप्त होता है । चाहे पुत्र हो या शिष्य, विनय से ही वह समग्र सम्पदा, समस्त ज्ञान और समस्त कलाओं का स्वामी बन सकता है। विनययुक्त तिर्यंचों को भी उनके विवेकी स्वामी विविध आश्चर्यकारक कलाएँ सिखाते हैं, जिससे वे अद्भुत शोभा को प्राप्त होते हैं । प्रायः करके प्राणियों के सभी कार्य विनय से ही सिद्ध होते हैं, तो फिर दोनों लोकों का हित साधनेवाली विद्या के लिए तो कहना ही क्या ? जैसे धान्य-संपत्ति अच्छी तरह रक्षण करने के बाद भी अनुकूल वायु के बिना फलवाली नहीं होती- पकती नहीं, वैसे ही विद्या भी अच्छी तरह अभ्यास करने के बाद भी विनय के बिना फलीभूत नहीं होती। गुरु के आसन को ऊपर रखना, उनके पैर धोना, उनका शरीर दबाना,
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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