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________________ 77/श्री दान-प्रदीप कामक्रीड़ा में आसक्त गृहस्थाश्रमी को जैसे द्रव्योपार्जन नहीं हो सकता, वैसे ही ज्ञान का आराधन भी कदापि नहीं हो सकता। जो पठन-पाठन के द्वारा निरन्तर श्रुतज्ञान का सम्यग् आराधन करते हैं, उनका जन्म और जीवन पवित्र है।" इस प्रकार विचार करके संवेग की भावना से युक्त होते हुए उसने चारित्र अंगीकार कर लिया। तत्त्वज्ञ पुरुष धर्मकार्यों में कदापि तृप्ति का अनुभव नहीं करते। वह श्रीगुरुदेव के पास यत्नपूर्वक सिद्धान्त पढ़ने लगा। थोड़े समय में ही उसने ग्यारह अंगों का ज्ञान कर लिया। साथ ही वह हर्षपूर्वक गुरु-भगवन्तों की यथाशक्ति भक्ति आदि कार्य करने लगा, क्योंकि विद्या का प्रथम बीज भक्ति ही है-ऐसा विद्वान कहते हैं। वह कभी भी तपस्या आदि में प्रमाद नहीं करता था, क्योंकि जो क्रिया में यत्न करता है, उसी का ज्ञान सफल है। फिर अनुक्रम से गुरु-भगवन्तों ने विमल को आचार्य पद पर स्थापित किया। योग्य पुत्र हो या शिष्य, गुरुजन उसे धनलक्ष्मी या ज्ञानलक्ष्मी प्राप्त करवाते ही हैं। जैसे मेघ जलधारा को विस्तृत बनाता है, वैसे ही विमलाचार्य पुण्य रूपी अंकुरों को उत्पन्न करनेवाली शुद्ध देशना का चारों तरफ विस्तार करने लगे। जैसे कलाचार्य राजकुमारों को कलाएँ सिखाते हैं, वैसे ही वे आदरपूर्वक शिष्यों को निर्मल विद्या सिखाते थे। जिनके भुजदण्डों पर युद्ध की खुजली चलती हो, वैसे पुरुष संग्राम के कार्य में थकान का अनुभव नहीं करते। ठीक वैसे ही विमलाचार्य भी वाचनादि कार्यों में कभी भी थकान का अनुभव नहीं करते थे। इस प्रकार ज्ञान की प्रकृष्ट आराधना के द्वारा आयु पूर्ण होने पर अनशन करके विमलाचार्य ईशान देवलोक में ईशानेन्द्र के सामानिक देव हुए। स्वर्ग से च्यवकर वह विमल देव तुम्हारा सुबुद्धि नामक पुत्र बना है। पूर्वभव में ज्ञान की उत्कृष्ट आराधना के द्वारा उसकी बुद्धि का चतुर्मुखी विकास हुआ है। उसका भाई अचल तो मर्मवेधी ज्ञाननिन्दा रूपी दुष्कर्म को जीवन-पर्यन्त करने के द्वारा मरण प्राप्त करके दूसरी नरक में उत्पन्न हुआ। वहां से निकलकर यह तुम्हारे दुर्बुद्धि नामक पुत्र के रूप में उत्पन्न हुआ है। वह ज्ञान की आशातना रूपी पापों को करने के कारण मूर्ख-शिरोमणि बना है।" इस प्रकार का विवरण सुनकर राजा, मंत्री, सुबुद्धि आदि अत्यन्त हर्षित हुए और ज्ञान की आराधना में अपने जीवन को जोड़ने का शुभ संकल्प किया। कार्यकुशल सुबुद्धि ने अपने पिता के साथ श्रावकधर्म अंगीकार किया। उसके बाद सभी ने गुरुदेव को नमन किया और अपने-अपने स्थान को लौट गये। जैसे सूर्य अपनी किरणों के द्वारा आकाश को शोभित करता है, वैसे ही सुबुद्धि ने अपनी शुद्ध बुद्धि के द्वारा जैनधर्म और अपने वंश को शोभित किया। अनुक्रम से दीक्षा ग्रहण करके अनेक प्रकार के ज्ञान का आराधन करके विधिपूर्वक मरण प्राप्त करके ब्रह्मदेवलोक में देवरूप में उत्पन्न हुआ। वहां से च्यवकर मनुष्य जन्म प्राप्त
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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