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________________ 76/श्री दान-प्रदीप इस प्रकार ज्ञान की आराधना में उद्यमवंत उसे एक बार छोटे भाई ने कहा-“हे भाई! इस प्रकार तूं अपने धन और जीवन का व्यर्थ ही व्यय क्यों कर रहा है? ज्ञान की आराधना देवों की तरह कुछ भी मनोवांछित प्रदान करनेवाली नहीं है। प्रसन्न हुए राजा की तरह यह ज्ञान-आराधना किसी देश या प्रान्त को दिलानेवाली भी नहीं है। मोदक तो पेट को तृप्त करता है, पर ज्ञान से कुछ भी तृप्ति नहीं होती। शीतल जल की तरह वह तृषा को भी शान्त नहीं कर पाता। व्यापार की तरह ज्ञानाराधना प्राणियों को स्वर्ण, 'दुर्वर्ण, रत्न या गोधन आदि प्रदान नहीं करती। स्वभाव से ही लक्ष्मी सरस्वती की दुश्मन होती है। अतः सुख की इच्छा रखनेवाला कौनसा व्यक्ति उस सरस्वती की सेवा करेगा? अतः हे भ्राता! मूर्त्तिमान दम्भ की तरह किसी धूर्त ने आपको यह सब कहकर ठग लिया है। आप क्यों वृथा ही धन और जीवन को गँवा रहे हैं?" छोटे भाई द्वारा कही हुई कुयुक्तियों से विमल जरा भी चलित नहीं हुआ। पर इसके विपरीत वह कहने लगा-"हे प्राज्ञ! ज्ञान सभी पुरुषार्थों की सिद्धि करने में समर्थ है और विश्वमान्य है। उसकी निन्दा करना किसी भी प्रकार से योग्य नहीं है। हे वत्स! जल से परिपूर्ण घट में कतक का चूर्ण डालने से जैसे मलिन पानी भी स्वच्छ बनता है, वैसे ही आभ्यन्तर मल से मलिन आत्मा भी सम्यग् ज्ञान के द्वारा निर्मल बनती है। ज्ञान नित्य उदय को प्राप्त सूर्य के समान है, ज्ञान अकृत्रिम मित्र है, ज्ञान न बुझनेवाला दीप है और ज्ञान ही अंतरंग चक्षु है। प्राणियों का मन रूपी घोड़ा स्वभाव से ही चपल होने से मार्ग से उन्मार्ग में जब गति करता है, तब उसे वापस सन्मार्ग पर लाने के लिए ज्ञान ही लगाम का कार्य करता है। जो अज्ञानी पुरुष ज्ञान और ज्ञानी की अवज्ञा करता है, उसे दुर्गति, मूर्खता आदि विपत्तियाँ पग-पग पर प्राप्त होती रहती हैं। अतः हे बंधु! अपमान करके तुम ज्ञान की आशातना मत करो, क्योंकि ज्ञान की आशातना प्राणियों के अनंत संसार बढ़ने का कारण बनती है।" बड़े भाई द्वारा वचनों की युक्ति से समझाने के बाद भी वह लघु भाई ज्ञान की अवज्ञा करने से पीछे नहीं हटा। कौए को दूध से स्नान करवाने के बाद भी क्या वह अपनी श्यामता का त्याग करता है? नीम के वृक्ष को शक्कर के पानी से सिंचा जाय, तो भी क्या वह कटुता का त्याग करता है? अपनी लार के द्वारा मकड़ी की तरह ज्ञान की निन्दा से उत्पन्न महान अशुभ कर्मों के द्वारा उसने अपनी आत्मा को चारों तरफ से लपेट लिया। एक बार निर्मल चित्तयुक्त विमल ने विचार किया-"अपार कार्यसमूह द्वारा व्यग्र हुए व 1. रजत या चांदी।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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