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________________ 49 / श्री दान- प्रदीप मदनसुन्दरी बनी है। तुम्हें जो यह स्वर्ग के राज्य को जीतनेवाली राजलक्ष्मी प्राप्त हुई है तथा समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करनेवाला यह रत्नकटौरा प्राप्त हुआ है, वह सब पुण्य के उद्गम को प्राप्त दानपुण्य रूपी कल्पवृक्ष का विलास है । वह वृक्ष थोड़े समय में परिपक्व होकर तुम्हें अक्षय सिद्धिसुख रूपी फल प्रदान करेगा, क्योंकि मनुष्यभव की और देवभव की संपत्ति जिनधर्म रूपी वृक्ष के फूल हैं और मुक्ति इसका फल है। इस प्रकार अपने पूर्वभव को श्रवणकर राजा और रानी के मन में संवेग भाव उत्पन्न हुआ। उन्होंने विशाल अष्टाह्निका महोत्सव करके पुत्र को राज्य पर स्थापित करके चारित्र ग्रहण किया। कलंक रहित आचरण के द्वारा उन दोनों ने चिरकाल तक तपस्या करके समग्र कर्मों का उन्मूलन करके श्रीकेवलज्ञान रूपी सूर्य की किरणों के द्वारा भुवन को प्रकाशित करते हुए अनुक्रम से मोक्षलक्ष्मी का वरण किया । हे बुद्धिमान भव्यों ! निर्मल दानमय दृष्टान्त से युक्त अद्भुत श्री मेघनाद राजा का चरित्र सुनकर निष्कपट दानविधि में अगर प्रवर्त्तन किया जाय, जिससे मोक्षलक्ष्मी स्वयं ही आकर आपका वरण करे । इस प्रकार साधारण दानधर्म को प्रकाशित करनेवाला यह प्रथम प्रकाश पूर्ण हुआ । ।। इति प्रथम प्रकाश ।। द्वितीय प्रकाश दान के भेद नवीन अग्नि के समान सुधर्मास्वामी लक्ष्मीरूप बनें । उनका विनाश रहित और अंजन रहित श्रुत रूपी दीपक आज तक विश्रांति-रहित निरन्तर तत्त्वमार्ग का प्रकाशन कर रहा है। अब मैं दान रूपी कल्पवृक्ष की भेद रूपी शाखाओं को कहता हूं। उन शाखाओं पर आरूढ़ प्राणी विशाल मनोवांछित फलों को प्राप्त करते हैं । दान के तीन भेद हैं :- ज्ञान, अभय और उपष्टम्भ। ज्ञानियों ने प्रथम ज्ञान दान के पाँच भेद बताये हैं-मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यव और केवल। इनमें से पण्डित पुरुषों ने श्रुतज्ञान की मुख्यता बतायी है, क्योंकि श्रुतज्ञान दीपक की
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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