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________________ 50/ श्री दान-प्रदीप तरह स्व और पर-दोनों को ही प्रकाशित करने में समर्थ है। शेष चार ज्ञान मूक की तरह मात्र स्व-प्रकाशक ही होते हैं। श्रुतज्ञान के द्वारा ही शेष सभी ज्ञानों की सम्यग् प्ररूपणा की जा सकती है। प्रायः श्रुतज्ञान का अभ्यास करने से ही दूसरे ज्ञानों की उत्पत्ति होती है। जैसे एक दीपक से दूसरा दीपक जलाया जा सकता है, उसी प्रकार एक श्रुतज्ञान दूसरों के हृदय में ज्ञानों को प्रकट करता है और स्वयं भी निरन्तर प्रकाशमान रहता है। जिसमें श्रुतज्ञान होता है, वह मनुष्य अन्य अनेक मनुष्यों को भी श्रुतज्ञान देने में समर्थ होता है। पर श्रुतज्ञान के अलावा अन्य चारों ज्ञान उसमें हों, तो वह उन्हें अन्य को देने में समर्थ नहीं बन सकता। अतः सभी ज्ञानों के मध्य श्रुतज्ञान की प्रमुखता योग्य प्रतीत होती है। जो श्रुतज्ञान जिनेश्वरों द्वारा प्ररूपित है, वही सत्य है और उसका अनुसरण करनेवाला अन्य का वचन भी श्रुत कहलाता है। साथ ही सम्यक्त्व-दृष्टि की बुद्धि के द्वारा पवित्र हो, तो अन्य शास्त्र भी श्रुत कहलाता है। यह श्रुत अन्य जनों को देना ज्ञानदान कहलाता है। ___ मृत्यु से भय-प्राप्त प्राणियों को अभय देना अभयदान कहलाता है। यह अभयदान सर्व-सम्पत्ति का कारण है। ___धर्म के उपष्टम्भ की पुष्टि के लिए पात्र को जो दान दिया जाता है, उसे जिनेश्वरों ने उपष्टम्भ दान कहा है। दान के ये तीन भेद ही वास्तव में धर्मयुक्त हैं, क्योंकि यह तीनों प्रकार का दान अक्षय मोक्ष सुख का अद्वितीय कारण है। अन्य भी दान के अनेक भेद हैं। जैसे-दयादान, उचितदान, कीर्तिदान आदि कहे जाते हैं। ये भेद अगर मार्गगामी हों अर्थात् सुपात्र को दिये जाते हों, तो इनका भी ऊपर के तीनों भेदों में समावेश हो जाता है। जैसे अपने मार्ग पर बहती हुई नदियाँ समुद्र को प्राप्त करके अक्षय बन जाती हैं और अगर मार्ग को छोड़कर अन्यत्र प्रवर्तित होती हैं, तो जहां-तहां विनाश को ही प्राप्त होती हैं। उसी प्रकार दया आदि दान अगर सन्मार्ग में किया जाय, तो मुख्य दानों में समाविष्ट होकर अक्षयता को प्राप्त होते हैं और अगर कुपात्रादि में किया जाय, तो अन्य-अन्य फल देकर विनाश को प्राप्त होते हैं। इन तीन मुख्य दानों में भी ज्ञानदान का ही चक्रवर्त्तित्त्व है अर्थात् श्रेष्ठता है-ऐसा कहा जाता है, क्योंकि ज्ञानपूर्वक ही अन्य दानों में प्रवृत्ति की जा सकती है। जैसे नेत्र सूक्ष्म लघु होने पर भी लोक में गौरव का कारण है, उसी प्रकार अल्प भी ज्ञानदान इस भव में और परभव में प्राणियों के लिए गौरव का कारण है। ज्ञानदान देते हुए ही वह स्वयं के लिए और अन्य के लिए वृद्धि का कारण बनता है। ज्ञान न देने से वह क्षय को प्राप्त होता जाता है। अतः ज्ञान का दान करने में कौन उद्यम नहीं करता। पृथ्वी पर रहे हुए जल की तरह धनादि का अल्पकाल में ही क्षय हो जाता है, पर ज्ञान तो वट वृक्ष की तरह देने से दिन-दिन वृद्धि
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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