SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 48/श्री दान-प्रदीप करते हैं। फिर जल के आचमन द्वारा उसने अच्छी तरह से बाह्य शुद्धि की और क्रोधादिक दोष रूपी मल के त्याग के द्वारा आभ्यान्तर शुद्धि भी की। उसने ताम्बूलादि के द्वारा ही अपने मुख को शोभित नहीं किया, बल्कि विस्तृत, अनेक रसों से युक्त व शोभित सूक्तियों के द्वारा भी अपने मुख यानि वाणी को शोभित किया। निरन्तर भारवहनादि कार्यों को करने से मानो अत्यधिक थकान का अनुभव कर रहा हो, इस प्रकार उदार मन से वह क्षणवार सुखशय्या में विश्रान्ति लेने लगा। फिर उसने मात्र न्याययुक्त व्यापार द्वारा ही धन का चिंतवन किया और इसी के साथ उसने सद्बुद्धि के साथ धर्मशास्त्रों के रहस्यों का भी चिंतवन किया। फिर उसने प्रतिक्रमणादि सन्ध्या-कृत्य भी किये। समयोचित कार्य करने से विवेक उत्कृष्टता को प्राप्त होता है। फिर रात्रि में सोते समय नमस्कारादि का स्मरण भी किया। इस प्रकार की शयन-विधि करने से इस भव में विघ्नों का नाश होता है और परभव में दुर्गति का नाश होता है। समय होने पर उसने द्रव्यनिद्रा तो अल्प ही ली, पर भाव से वह सदैव दिन-रात अत्यन्त जागृत रहा। श्रेष्ठबुद्धियुक्त भी अधिकतर मैथुन-सेवन का त्याग करता था। कामक्रीड़ा के विषय में अनासक्ति दोनों लोक में कल्याणकारी है। इस प्रकार वह हमेशा सत्कार्य में तत्पर रहने लगा। इससे वह लोक में अत्यन्त प्रतिष्ठित हुआ। सदाचार सत्पुरुष का अलंकार है। मानो सद्बुद्धि रूपी गाय के दुहे हुए यश रूपी दूध को रखने के समान उसने पानी भरने के लिए ताम्बे व पीतल के पात्र बनवाये। पूर्व में तो कृपणता के कारण घर में तुम्बड़े के ही पात्र थे। विशुद्ध होने से उसने परम श्रद्धा व हर्ष के साथ वे पात्र मुनियों को बहरा दिये । नवविवाहिता पुण्य लक्ष्मी को निवास करवाना हो, इस प्रकार कपटरहित उसने जिनेश्वर के चैत्य करवाये। उनमें अत्यधिक देदीप्यमान अनेक जिनबिम्ब बनवाये। वे ऐसे शोभित होते थे, मानो आत्मा में न समाने से बाहर पिण्ड रूप किये हुए पुण्य ही हों। मोक्ष रूपी लक्ष्मी को खरीदने के लिए मानो अग्रिम जमानत दे रहे हों, इस प्रकार उसने कल्याणकारक ज्ञान की पुस्तकें लिखवा-लिखवाकर हर्ष से ज्ञानी गुरुओं को भेंट की। मृत्युभय से पीड़ा को प्राप्त और कारागृह के बंधनादि में पड़े हुए प्राणियों को वह अत्यन्त द्रव्यादि खर्च करके अभयदान दिलवाता था। इस प्रकार उसने अपने पूर्वजों द्वारा संचित तीन लाख द्रव्य पुण्यकार्यों में खर्च कर डाला। एकमात्र पात्रदान ही धन की शुभ गति है, बाकी सभी तो विपत्ति रूप ही है। स्वयं के द्वारा उपार्जित धन द्वारा ही वह अपने परिवार का पोषण करने लगा। उत्तम पुरुष दूसरों के द्वारा उपार्जित धन का उपभोग नहीं करते। इस प्रकार जिनधर्म की आराधना करते हुए अन्त समय अन्तक्रिया का साधन करते हुए मरकर धनराज का जीव तो मेघनाद कुमार के रूप में उत्पन्न हुआ। धन्या भी न्याय-वृत्ति के द्वारा अगण्य पुण्य करके अन्त में मरण प्राप्त करके तुम्हारी पत्नी
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy