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________________ 47/श्री दान-प्रदीप मात्र जिनेश्वर का ही तिलक नहीं किया, बल्कि अपने वंश को भी यश रूपी तिलक लगाया। अरिहंत के गले में उसने अनुपम, निर्मल और नवीन कुसुमों की माला का आरोपण करके मानो अपने हृदय में गुणों की माला की स्थापना की। मणिरचित सारभूत अलंकारों के समूह द्वारा जिनेश्वर देव का श्रृंगार करके मानो उसने अपनी आत्मा का उज्ज्वल विवेक के द्वारा शृंगार किया। उसने जिनेश्वर के पास देदीप्यमान उत्तम रत्नमय दीपक को प्रज्ज्वलित करके मानो अपने हृदय में ज्ञान रूपी दीप को प्रकट किया। पुण्य की खेती करने के लिए मानो बीज बो रहा हो, इस प्रकार उसने जिनेश्वर के पास चावल बिखेरे। उसने अरिहन्त को उत्कृष्ट स्वादिष्ट फल भेंट करके अपनी आत्मा को स्वर्ग-मोक्षादि फल भेंट किये। निर्मल बुद्धियुक्त उसने तुरन्त का निर्मित मनोहर और स्वादिष्ट नैवेद्य स्थापित किया और उसके साथ अपनी आत्मा में सम्यक्त्व को स्थापित किया। उसने कालागुरु की धूप के द्वारा जिनगृह को सुवासित करके अपनी कीर्ति रूपी कपूर के समूह से चारों तरफ पृथ्वीतल को सुवासित किया। जन्म के साथ ही जिसने पूजा की विधि जान ली हो, इस प्रकार निष्कपट बुद्धि से युक्त उसने जिनराज की आरती उतारी और अपने वंश को शोभित किया। फिर उसने कल्याणमय मंगल दीपक उतारकर मानो अपनी आत्मा को भवसागर से पार उतारा। भक्तिरस से युक्त स्तोत्रों द्वारा भावपूर्वक उसने जिनस्तुति की और उसके गुणों से अनुरंजित चित्तवाले सभी पुरजनों ने उसकी स्तुति की। इस प्रकार विचारवान वह जिनेश्वर की पूजा करके घर पर आया और विवेकीजनों की पंक्ति में अग्रिम स्थान को हासिल किया। फिर उसने अतिथियों का उत्तम आतिथ्य किया, क्योंकि विवेकीजन अतिथि- संविभाग के बिना भोजन नहीं करते। फिर वृद्धजनों की सारादि करते हुए स्वयं भोजन करने के लिए बैठा, क्योंकि सत्पुरुष भोजन के समय केवल पेट भरनेवाले ही नहीं होते। उसके दानान्तराय, भोगान्तरायादि पाप-यामिक देव की कृपा से दूर हो चुके थे, इसी कारण से दान और भोग के विषय में उसकी ऐसी शुद्ध बुद्धि उत्पन्न हुई थी। जब तक रात्रि का घोर अन्धकार हो, तब तक प्रकाश कैसे प्रकट हो सकता है? उसकी प्रिया ने विचार किया-"अहो! जन्म से लेकर आज तक जिसे विवेक का जरा भी अभ्यास न था, उसे आज इतनी जल्दी और अद्भुत विवेक प्राप्त हुआ है। निश्चय ही अब हमारा भाग्य पुण्य के शिखर पर पहुँच गया प्रतीत होता है। उसी का यह फल प्राप्त हुआ है।" __ इस विचार से आनन्दित होते हुए उसकी प्रिया ने उसे उत्तम भोजन परोसा, जिसे उसने व उसके पूर्वजों ने कभी चखा ही नहीं था। चपलता-रहित व मौनपूर्वक उसने रुचि के अनुसार परिमित भोजन किया। विवेकी पुरुष ही सम्यग् प्रकार से भोजन करने का उद्यम
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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