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________________ 32 / श्री दान- प्रदीप है । फिर गुरु-दर्शन का तो कहना ही क्या ? पुण्यकार्य में शीघ्रता करना ही श्रेष्ठ है, क्योंकि एक रात्रि - मात्र का विलम्ब करनेवाले बाहुबलि को पिता की वन्दना नसीब नहीं हुई । " यह सुनकर हर्षित राजा ने पुत्र - सहित उसी अद्भुत महाविभूतिपूर्वक उद्यान में जाकर महान भक्ति के साथ गुरुदेवश्री को प्रणाम किया । फिर धर्मघोष मुनि ने अमृतवाणी के द्वारा वैराग्यमय देशना प्रारम्भ की: "इस संसार में सभी जीव एकमात्र सुख की ही अभिलाषा करते हैं। वह अभिलाषा मात्र धर्मकरणी के द्वारा ही पूर्ण हो सकती है। धर्म के अलावा अन्य पदार्थ - जैसे देह, स्त्री, स्वजन, धनादि सुख देनेवाले हैं - ऐसा मूढमति ही मानते हैं। पर तत्त्वज्ञानी तो इन्हें अन्यथा अर्थात् दुःखकारक मानते हैं। वह इस प्रकार है- शरीर तो सप्तधातुमय होने से अपवित्र ही है, मल-मूत्रादि से व्याप्त है, तो फिर वह मनुष्य के सुख के लिए कैसे हो सकता है? इस शरीर में कभी हाथ दुखता है, तो कभी हृदय, कभी मुख, तो कभी कान, कभी नेत्र, तो कभी कन्धे, कभी आँख, तो कभी गर्दन, कभी मस्तक, तो कभी ओष्ठ, कभी दाँत, तो कभी घुटने, कभी कमर - इस प्रकार कुछ न कुछ तो दुखता ही रहता है और आत्मा में अत्यन्त पीड़ा उत्पन्न करता है। अतः मोहरहित कौनसा पुरुष देह को सुखकारक मानता है? मेरे इस शरीर को क्षुधा बाधित न करे, तृषा पीड़ित न करे, इसी प्रकार शीत, उष्ण, सर्प, वात, पित्त और कफ से उत्पन्न व्याधियाँ, डांस-मच्छर, जल, अग्नि, भूतादि क्षुद्र देव, मलमूत्र और चोर - ये सभी मेरे शरीर को पीड़ा न करे- ऐसा मानकर उसके रक्षण के लिए अल्पबुद्धिवाले मनुष्य उन-2 सैकड़ों उपायों - प्रयासों को करते रहते हैं । जड़बुद्धियुक्त पुरुष इस शरीर के लिए अपार पापों को करके अन्त में अपार दुर्गति पाकर अनंत दुःखों को भोगते हैं । नरक को प्राप्त शशि राजा ने देवलोक से आये हुए अपने भाई से कहा था - " हे भाई! देह के लालन-पालन में ही सुख मानने के कारण मैं नरक में पैदा हुआ हूं। अतः मेरे उस पूर्वभव के शरीर को तूं पीड़ा दे ।” इसी कारण से आत्मसुख की वांछा करनेवाले तत्त्वज्ञानी शरीर का त्याग करने में उद्यमवन्त होकर दुष्कर तपों का आचरण करते हैं, जिससे अगर यह शरीर तपस्या आदि क्रियाओं के द्वारा धर्म में उपयोगी बने, तो वह सनत्कुमार चक्रवर्ती की तरह सुख के लिए उपयोगी बने । स्त्रियाँ भी रुधिर, अस्थि, चर्बी और मांसादि अशुचि पदार्थों की मूर्ति - स्वरूप है। उन्हें भी तत्त्वज्ञानी सुख का हेतु नहीं मानते । स्त्रियों में आसक्त बने मूढ़ पुरुष इस भव में भी पग-2 पर अपवित्रता, चिन्ता और संताप की श्रेणियों को प्राप्त करते हैं। साथ ही स्त्रियों की आसक्ति के कारण ही मनुष्य को शरीर - कम्पन, ग्लानि, श्रम, पसीना और क्षयादि सभी प्राण
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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