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________________ 31/श्री दान-प्रदीप इस प्रकार कहकर उस राक्षसी ने उस दम्पति से क्षमायाचना की और कुमार को त्रैलोक्यविजय नामक हार प्रदान किया। उसके बाद नागराज और वह राक्षसी अपने-2 स्थानों पर लौट गये। राजकुमार मेघनाद और मदनमंजरी अपने शील की परीक्षा से प्रसन्न हुए। फिर स्वस्थ होकर कुमार ने अपनी नगरी की और प्रयाण किया तथा जल्दी-2 मार्ग तय करते हुए कुछ ही दिनों में अपनी नगरी के निकट पहुँच गया। उधर से गुजरते हुए पथिकों के द्वारा सारा वृत्तान्त श्रवणकर लक्ष्मीपति राजा अत्यन्त विस्मित व प्रसन्न हुए। सम्पूर्ण नगर को दुल्हन की तरह सजा-सँवारकर अपने सम्पूण परिवार व ऋद्धि-सहित आनन्द के साथ राजकुमार के सन्मुख गया। जिसका शरीर खींचे गये धनुष्य की तरह नमा हो, इस प्रकार वह कुमार अपने दोनों हाथों से पिताश्री के चरणों को पकड़कर झुक गया। राजा ने भी अपने दोनों हाथों से उसे उठाकर इस प्रकार अपनी छाती से लगाया, मानो चिरकाल के वियोग से उत्पन्न दुःख का मर्दन करने के लिए उसे अपने हृदय में प्रवेश करा रहे हों। उसके बाद वे पिता-पुत्र उसी वन में क्षणभर के लिए मानो विरहाग्नि को बुझाने के लिए परस्पर कुशल-पृच्छा का अमृतपान करने लगे। फिर विश्व को विस्मय उत्पन्न करनेवाले आडम्बरपूर्वक विशाल महोत्सव के साथ राजा कुमार को लेकर नगरी की तरफ चला। तभी कुमार ने अनेक नगरजनों को देखा, जो इस उत्सवमय मार्ग को भी नगण्य मानते हुए उस मार्ग को छोड़कर अन्य मार्ग के द्वारा नगर से बाहर जा रहे थे। यह देखकर विस्मित होते हुए कुमार ने पिता से पूछा-“हे पिताजी! अपने-2 परिवार के साथ आनन्द से भरपूर ये नगरजन इस विशाल उत्सव को छोड़कर शीघ्रता के साथ किधर जा रहे हैं?" । राजा ने कहा-“हे वत्स! अन्धकार के समूह का नाश करने में दिनकर के समान धर्मघोष नामक मुनिवर आज उद्यान में पधारे हैं। उन मुनिराज को वन्दन करने की उत्कण्ठा से ये लोग उद्यान में जा रहे हैं। ऐसे गुरुदेव तो पूर्व पुण्य के उदय से ही प्राप्त होते हैं। मैंने तो आज बहू सहित तेरे आगमन का उत्सव किया है। अतः कल प्रातःकाल ऐसे सद्गुरु के चरण-कमलों में नमस्कार करूंगा।" यह सुनकर हर्षान्वित होते हुए मेघनाद ने पिता से कहा-“हे तात! हम भी आज ही श्रीगुरुदेव को वंदन करने के लिए चलें। यह कार्य दूध में शर्करा मिलाने के समान होगा। एक उत्सव में दूसरा उत्सव हो जायगा, एक आनन्द में दूसरा आनन्द हो जायगा। नगर–प्रवेश करते हुए यह कार्य मंगल रूप बनेगा, क्योंकि साधु-दर्शन परम शुभ मंगल रूप
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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