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________________ 33/श्री दान-प्रदीप की हानि करनेवाली व्याधियाँ उत्पन्न होती हैं। बाहर से मनोहर दिखनेवाले उसके जिन-2 अवयवों को मूढ़ पुरुष सुख का हेतु मानते हैं, उन सभी अवयवों को तत्त्व दृष्टि से विचार करनेवाले पण्डित पुरुष दुःखकारक मानते हैं। उसमें भी अगर वह स्त्री पुरुष से विरक्त हो गयी हो, तो उस मनुष्य को क्या-2 आपत्ति नहीं आती? सुना है कि सूर्यकान्ता महारानी ने अपने धर्मनिष्ठ पति प्रदेशी राजा का विनाश किया था। यही स्त्रियाँ कदाचित् गृहस्थी को सहायता देने से धर्म के विषय में उपकार करनेवाली हों, तो मदनरेखा की तरह सुख देनेवाली भी बन सकती है। पिता, भाई, माता, बहिन और पुत्रादि स्वजन भी अपने-2 कार्य में ही तत्पर होने से कैसे सुखकारक हो सकते हैं? जो रोगादि की आपत्ति में रक्षण नहीं कर सकते, जिन पर उपकार करने के बाद भी उनकी तरफ से प्रत्युपकार की आशा में संशय है और जिनका प्रेम स्वाभाविक नहीं है, उन स्वजनों से किस सुख की अभिलाषा रखना? उन स्वजनों के लिए सबसे पहले धनोपार्जन के कारणभूत शीत, आतपादि सैकड़ों प्रयासों अर्थात् दुःखों को प्राणी भोगता है और उसके बाद प्राप्त उस धन के विभाग करने में सैकड़ों क्लेशों का अनुभव करता है। कहा भी है कि : माया पिया य भाया, भज्जा पुत्ता य सुही अ नियगा य। इह चेव बहुविहाई, करंति भयवेमणस्साई।। अर्थः-माता, पिता, भाई, भार्या, पुत्र, पुत्रवधू और स्वजन इस लोक में अनेक प्रकार के भय और क्लेश उत्पन्न करते हैं।। उन स्वजनादि के लिए किये हुए उन-2 महा-आरम्भों से उत्पन्न हुए पापों के द्वारा मनुष्य मरण प्राप्त करके दुरन्त दुर्गति को प्राप्त करता है। कदाचित् ये स्वजन परस्पर प्रीति रखनेवाले हों, पुण्यकार्य में सहायक हों, तो वे इसलोक और परलोक में सुखकारक होते हैं। धन, धान्य और सुवर्णादि नौ प्रकार के अर्थ कहे गये हैं। ये भी उपार्जन करने में, रक्षण करने में और विनाशादि होने पर दुःख का ही एकमात्र कारण बनते हैं। ये अर्थ मृत्यु आदि आपत्ति को दूर नहीं कर सकते, बल्कि शत्रु के उपकारक भी बन सकते हैं, सर्पादि दुर्गति के भी प्रदाता बन जाते हैं। अतः कैसे सुखकारक हो सकते हैं? प्रत्युत धन के निमित्त से जो पाँच इन्द्रियों से सम्बन्धित विषय-सुख प्राप्त होते हैं, वे भी अनंत दुःखों के प्रदाता होने से पण्डित उन्हें दुःख रूप ही मानते हैं। भाई, मित्र, पिता, पुत्र और साथ में व्यापार करनेवाले अन्य गोत्रियों को यह अर्थ प्रायः करके प्राणान्त करनेवाले क्लेश को उत्पन्न करता है। कहा है कि:
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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