SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 41
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 30/श्री दान-प्रदीप भ्रमण करते हुए ऐसा सुख प्राप्त हुआ है? एक तरफ मन में गुरुजनों से मिलने की उत्कण्ठा है, तो दूसरी तरफ ये दोनों स्त्रियाँ मुझे अत्यन्त उद्विग्न बना रही हैं। अतः मेरे लिए तो 'एक तरफ बाघ और दूसरी तरफ नदी का पूर' की स्थिति है। अब मैं क्या करूं?" सैकड़ों दुःखों से उस कुमार का अन्तःकरण व्याप्त हो गया हो, मानो उसके सर्वस्व का हरण हुआ हो, इस प्रकार वह वहीं अपना काल निर्गमन करने लगा। वियोग के कारण चक्रवाक के जोड़े की तरह दुःखी हुए उस दम्पति के छ: युग की तरह छ: मास व्यतीत हुए। उसके बाद एक बार असली मदनमंजरी के मन में बुद्धि उत्पन्न हुई। उसने पुष्पादि के द्वारा उस रत्नकटौरे की पूजा करके कहा-“नम्र प्राणियों का कल्याण करने में जागृत हे नागेन्द्र! मुझ पर प्रसन्न होकर मुझे इस पापिष्ठ राक्षसी से पीछा छुड़वाओ।" ऐसा कहते ही नागेन्द्र तुरन्त प्रकट हुए। भृकुटि चढ़ाकर कपाल की विषमाकृति बनाते हुए नकली मदनमंजरी की तर्जना करते हुए कहा-"हे दुराचारिणी! हे ढीठ! हे मूर्खा! तुझे अब मरना ही है, क्योंकि तुमने इस पुण्यवान दम्पति पर द्रोहभाव को धारण किया है।" यह सुनकर भय से कम्पित होते हुए पलायन करने में असक्षम उस राक्षसी ने अपने असली रूप को धारण करते हुए दीन वाणी में नागेन्द्र से कहा-“हे नागराज! अपने वार से जिस राक्षस को तुमने मार डाला, मैं उसी राक्षस की बहिन भ्रमरशीला नामक राक्षसी हूं। मेरे भाई की मृत्यु से मुझे क्रोध उत्पन्न हुआ। तुम्हारा तो मैं कुछ भी बिगाड़ नहीं सकती थी। अतः पत्नी-सहित इस मेघनाद का नाश करने के लिए मैं यहां आयी। पर चतुर्दिशा में प्रसृत इसके अगण्य लावण्य रस के द्वारा मेरी क्रोधाग्नि तत्काल शान्त हो गयी। मेरे चित्त रूपी पृथ्वी पर राग के अंकुर उत्पन्न हुए। उनमें से प्रीति रूपी लता उत्पन्न हुई। पर इस कुमार ने जन्म से ही परस्त्री से पराङ्मुख रहने की प्रतिज्ञा को धारण कर रखा है। अतः इसे ठगने के लिए मैंने मदनमंजरी का रूप धारण किया। फिर दो स्त्रियों की भ्रान्ति दूर करने के लिए असली मदनमंजरी को नकली साबित कर उसे दूर देश में भिजवाने के लिए मैंने अपनी शक्ति के अनुसार अनेक प्रयत्न किये, पर मैं उसे अपनी दुष्ट दृष्टि के द्वारा देखने में भी समर्थ न हुई, क्योंकि वह शील रूपी वज्रकवच के द्वारा आवृत और धर्मकार्य में कुशल है। उसके बाद भी मैंने विद्या द्वारा बहुत ही सुन्दर तरीके से हाव, भाव, विलासादि के द्वारा इस मेघनाद को मोहित करने का अत्यधिक प्रयत्न किया। पर इस कुशल पुरुष की आँख की भाँपण तक विचलित न हो पायी। क्या मेरुपर्वत का शिखर कल्पान्त काल की वायु के द्वारा भी भला विचलित हो सकता है? मैं मानती हूं कि इसका मन वज्र के परमाणुओं से निर्मित हुआ है, जिससे कि मेरे कटाक्ष रूपी बाण उसे भेदने में समर्थ नहीं है।"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy