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________________ 398/श्री दान-प्रदीप इस प्रकार विचार करते हुए उसे संवेग उत्पन्न हुआ। उसने केवली भगवान के पास सम्यक्त्व सहित गृहस्थ धर्म रूपी बारह व्रत अंगीकार किये। उसने यह अभिग्रह भी ग्रहण किया कि उपार्जित किये हुए धन में से चौथा भाग रखकर बाकी सारा धन स्पर्धारहित होकर दानादि धर्मकार्यों में उपयोग करूंगा। फिर पूर्वजन्म में अपने द्वारा किये गये अपराध को गुरु के सामने खमाया। गुरु भी विहार करके अन्य देश को सूर्य की तरह प्रकाशित करने लगे। उसके बाद वह धनसार श्रेष्ठी पुण्यकार्य में तत्पर बनकर अनुक्रम से ताम्रलिप्ति नामक नगर में गया। वहां शुद्ध वृत्ति से व्यापार करने लगा। वहां पवित्र आत्मायुक्त होकर वह जितना भी द्रव्य उपार्जित करता, उसमें से एक चौथाई भाग रखकर बाकी सारा धर्मकार्य में लगाने लगा, क्योंकि सत्पुरुष कभी भी असत्यव्रती नहीं होते। अष्टमी आदि तिथियों के दिन कर्म रूपी व्याधि की औषधि के समान पौषधव्रत को अंगीकार करता तथा जिनपूजादि में प्रयत्न करते हुए उसने कितना ही काल निर्गमन किया। एक बार चतुर्दशी की रात्रि में अत्यन्त क्रूर व्यन्तर के निवास के द्वारा भयंकर दिखते शून्य घर में स्थिर मतिवाले उस श्रेष्ठी ने प्रतिमा धारण की और कायोत्सर्ग में खड़ा हो गया। उस पर वह मिथ्यादृष्टि व्यन्तर अत्यन्त क्रुद्ध हुआ। जगत को आनन्द प्रदान करनेवाले चन्द्र पर क्या चोर क्रोध नहीं करते? उस व्यन्तर ने सर्प का रूप धारण करके निर्दयतापूर्वक शंकारहित होकर उस श्रेष्ठी को डंक मारा। अन्य भी अनेक भय दिखाकर उसे भयभीत करने की कोशिश की, पर उस श्रेष्ठी का मन स्थिर था। उसने अत्यन्त समता धारण कर रखी थी। अतः वह लेशमात्र भी क्षुब्ध नहीं हुआ-नहीं डिगा। क्या प्रलयकाल की उद्धत व प्रचण्ड वायु के द्वारा मेरुपर्वत कम्पायमान हो सकता है? उसकी स्थिरता देखकर उस अधम देव ने अत्यन्त क्रुद्ध होते हुए उसके शरीर में भयंकर वेदना उत्पन्न की। इस प्रकार सूर्योदय होने तक उस देव ने उपसर्ग किये, पर उसके मुख की कान्ति का भेदन नहीं हुआ। उसने शरीर को तृण के समान मान लिया था और उसका मन ध्यान में ही तल्लीन था। उसे इस प्रकार देखकर यक्ष ने कहा-"तूं ही धन्य है, तूं ही मान्य है, तूं ही पूज्य है और तूं ही स्तुति करने लायक है। गृहस्थ होते हुए भी तेरी धर्म में दृढ़ता किसी के द्वारा भी नष्ट नहीं की जा सकती। तेरा सत्त्व सर्व प्राणियों में सर्वाधिक है। तुम्हारी समता उपमारहित है। तेरा धैर्य मेरुपर्वत का भी तिरस्कार करनेवाला है। अहो! तेरे गुणों का अतिशय आश्चर्यकारक है। मैं तुम पर संतुष्ट हुआ हूं। अतः वरदान मांगो। देवदर्शन कभी निष्फल नहीं होता।" । इस प्रकार बार-बार कहने पर भी जब उस श्रेष्ठी ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया, तब देव ने फिर से कहा-“हे महात्मा! तूं निःस्पृह है, पर फिर भी मेरे कहने से तूं अब मथुरानगरी में जा। जब तूं वहां जायगा, तो तुम्हारे उग्र भाव से किये हुए इस सुकृत्य के कारण तेरा नष्ट हुआ 66
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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