SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 410
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 399/श्री दान-प्रदीप करोड़ धन तत्काल तुझे प्राप्त होगा।" ऐसा कहकर वह देव क्षमायाचना करके तत्काल अदृश्य हो गया। फिर श्रेष्ठ बुद्धियुक्त वह श्रेष्ठी प्रतिमा को पारकर विचार करने लगा-“मेरा चित्त विशुद्ध जिनधर्म में लगा हुआ है, अतः मुझे वित्त से क्या प्रयोजन? क्योंकि धर्म ही अनुपम सुखलक्ष्मी का कारण है, वित्त सुख का कारण नहीं है। मेरी नगरी में मेरे कुल के पंक के समान मेरी कृपणता का कलंक विस्तार को प्राप्त है। अतः वहां जाकर अभी ही उस कलंक को धो देना ही उचित है। और अगर वह नष्ट हुआ मेरा धन मुझे वापस प्राप्त हो जाय, तो मैं उसे सुकृत में लगाकर उसे सफल बनाऊँ, क्योंकि दान ही वित्त का फल है। अगर मैं वहां जाऊँगा, तो मेरे सम्बन्धी भी धर्म का फल देखकर उस धर्म में दृढ़ बनेंगे।" ___ इस प्रकार कार्य का विचार करके वह धनसार श्रेष्ठी मथुरानगरी में अपने घर पर गया। वहां जाकर अपना निधान सम्भाला, तो वह सारा धन पूर्ववत् जमीन में यथातथ्य रूप में मिला। जिन वाणोतरों ने धन को ग्रहण कर-करके देशांतरों में पलायन किया था, वे भी उसे समृद्धियुक्त देखकर फल को देनेनवाले वृक्ष को जैसे पक्षी सेवते हैं, वैसे ही आ–आकर उसकी सेवा करने लगे। निर्मल वृत्तियुक्त उस श्रेष्ठी का उधार दिया हुआ धन स्वयं ही उसके हाथ में आने लगा, क्योंकि शुद्ध व्यवहार देखकर सर्व मनुष्य अनुकूल हो जाते हैं। राजा के पास अपना मान होने से चोरादि के आधीन रहा हुआ धन भी उसे वापस प्राप्त हो गया। जब प्राणियों के कर्म अनुकूल होते हैं, तब उसे कुछ भी दुर्लभ नहीं होता। ज्यादा क्या कहें? उसका छासठ करोड़ धन उसे प्राप्त हो गया। शुभ भाव से उत्पन्न हुआ सुकृत शीघ्र ही फलदायक होता है। फिर मानो अपनी पुण्यलक्ष्मी के निवास करने के लिए मन की प्रसन्नता को करनेवाला और आकाश को स्पर्श करते शिखर से युक्त एक चैत्य करवाया। उसमें समग्र पृथ्वी के लोगों को आनन्द प्रदान करनेवाले महान उत्सवपूर्वक आदिनाथ भगवान की स्वर्णमयी प्रतिमा की स्थापना की। उसके शिखर पर अपनी पूर्व की अपकीर्ति रूपी अन्धकार का विनाश करने के लिए मानो चन्द्र के बिम्ब के समान दैदीप्यमान स्वर्णकलश की स्थापना की। बुद्धि रूपी धन से युक्त उस श्रेष्ठी ने जीर्णोद्धार आदि कार्यों में भी अपना धन लगाया। अतः उसके नियम जरा भी भंग रूपी मलिनता को प्राप्त नहीं हुए। इस प्रकार गर्वरहित निरन्तर दानधर्म का विस्तार करते हुए उस श्रेष्ठी ने पुण्य, कीर्ति और प्रतिष्ठा को अधिक से अधिक प्राप्त किया। अन्त में पुत्र को घर का कार्यभार सौंपकर धर्म में स्थिर बुद्धियुक्त उसने एक मास का अनशन किया और सौधर्म देवलोक में श्रेष्ठ देव बना। वहां से आयुष्य पूर्ण करके च्यवकर महाविदेह क्षेत्र में उत्तम कुल में जन्म आदि समस्त शुभ सामग्री प्राप्त करके चारित्र ग्रहण करके समताभावों के द्वारा आठों कर्मों का उन्मूलन करके मोक्ष को प्राप्त करेगा।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy