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________________ 397/श्री दान-प्रदीप इस प्रकार सुनकर चतुर रानियाँ अत्यन्त वैराग्य को प्राप्त हुई, क्योंकि भव्य प्राणी कुकर्म का फल सुनकर वैराग्य को प्राप्त होते ही हैं। फिर रानियाँ चैत्य में आकर जिनेश्वर को नमन करके स्नेह, करुणा और आश्चर्यपूर्वक उस कुतिया को देखकर उसके पास भोजनादि पदार्थ रखकर वैराग्यपूर्ण वचन कहने लगीं-“हे भद्रे! तुमने पूर्वभव में इस चैत्य को बनवाया था। इसके सिवाय दानादि अन्य पुण्य भी बहुत किया था। पर तेरी ईर्ष्या ने वह सब पुण्य धो डाला है। उसी ईर्ष्या के कारण तूं इस निन्दनीय गति को प्राप्त हुई है। पूर्वभव में तो तुम राजा की कुंतलदेवी नामक पट्टरानी थी।" । ऐसे वचन सुनकर कुतिया संभ्रान्त होते हुए विचार करने लगी-"मुझ पर प्रेम रखनेवाली ये स्त्रियाँ कौन हैं? ये मुझे क्या कह रही हैं? यह मन्दिर क्या है? मैंने इसे पहले कहाँ देखा है?" __ इत्यादि तर्क-वितर्क करते हुए उसे जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। पूर्वकृत पुण्य और ईर्ष्या आदि को प्रत्यक्ष देखा । अतः अत्यन्त वैराग्य को प्राप्त होकर बारम्बार पूर्वकृत दुष्कर्मों की निन्दा करने लगी। फिर केवली के पास जाकर उसने सर्व कर्मों की आलोचना की। वैराग्य के कारण अनशन स्वीकार किया और सात दिनों के बाद मरकर स्वर्ग में गयी। इस प्रकार ईर्ष्या का परिणाम अत्यन्त दुष्ट है और वह ईर्ष्या सद्धर्म में बाधक है-ऐसा जानकर बुद्धिमान पुरुष को सर्व कार्य में उसका त्याग करना चाहिए और पुण्यकार्य में तो विशेष रूप से त्याग करना चाहिए।" इस प्रकार अपने पूर्वभव के साथ केवली भगवान की दिव्य पुण्यमय वाणी को सुनकर हर्ष को प्राप्त धनसार श्रेष्ठी अत्यन्त वैराग्य को प्राप्त हुआ। उसका मन पुण्य में लीन हो गया। उसने केवली भगवान से पूछा-“हे भगवान! मेरा वह भाई अभी तक देवलोक से च्यवकर मनुष्य जन्म में आया है या नहीं?" ___ भगवान ने कहा-"वह तुम्हारा भाई सौधर्म देवलोक से च्यवकर ताम्रलिप्ति नामक नगर में श्रेष्ठीकुल में महान वैभवशाली बना। उसने यौवनवय में ही अत्यन्त वैराग्यवंत होकर जैनदीक्षा ग्रहण की और अब केवलज्ञान प्राप्त करके इस भूमण्डल पर विचारण कर रहे हैं। वह तुम्हारा बड़ा भाई मैं ही हूं।" यह सुनकर उस श्रेष्ठी ने प्रसन्न होते हुए मन में विचार किया-"हहा! मैंने मूढ़ बुद्धि के द्वारा पूर्व में धर्म की विराधना की, जिसके कारण विशाल सम्पदा को प्राप्त करके भी इस प्रकार के कष्ट में आ गिरा हूं। मेरे इस बड़े भाई ने सम्यग् प्रकार से धर्म की आराधना करके महान कैवल्य संपत्ति को प्राप्त किया है।"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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