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________________ 396/ श्री दान-प्रदीप अतः उसने स्वर्ण का विशाल और ऊँचा चैत्य बनवाया। उनमें पूजादि सभी कार्य विशेष रूप से करने लगी, क्योंकि ईर्ष्यालू अपने उत्कर्ष और अन्यों के अपकर्ष के लिए ही यत्न किया करते हैं। अन्य सभी रानियाँ सरल थीं। वे भक्तिपूर्वक जो-जो उत्सव करतीं, उन सभी को वह कुंतलदेवी रानी ईर्ष्या से दुगुने रूप में करती। पर फिर भी अन्य रानियाँ उसकी प्रशंसा ही करती कि-"अहो! इस कुंतलदेवी रानी की संपत्ति किसके द्वारा प्रशंसनीय नहीं होगी? कि इस प्रकार से जिनेश्वर देव की अद्भुत भक्ति करती है।" इस प्रकार प्रशंसा करके उसकी अनुमोदना करती थीं। पर कुंतलदेवी रानी का मत्सर भाव उसके महान पुण्य का भी नाशक बना, क्योंकि विष महास्वादिष्ट भोजन को भी दूषित कर देता है। सपत्नियों के चैत्यों में मनोहर वाद्यन्त्रों के गूंजते हुए शब्द उसके कान में पड़ते ही उसे तीव्र ज्वर हो जाता था। हमेशा उनके चैत्यों में होते उत्सवों को देखकर वह उसी प्रकार दुःखी होती थी, जिस प्रकार सूर्य को देखकर धुवड़ दुःखी होता है। इस प्रकार द्वेष के दुःख से पीड़ित कुंतलदेवी व्याधि से भी पीड़ित होने लगी, क्योंकि अत्यधिक पुण्य या पाप का फल इसी भव में भी प्राप्त होता है। हिम के द्वारा कमलिनी की तरह वह व्याधि के द्वारा अत्यन्त दुष्ट अवस्था को प्राप्त हुई। सभी उसे देखकर थू-थू करके उसकी निन्दा करते थे। यह अब सेवन करने लायक नहीं है-ऐसा सोचकर राजा ने उसे दूर कर दिया। उसका परिवार भी उसकी अवज्ञा करने लगा। ऐसी स्थिति में कौन अवज्ञा न करे? इस प्रकार की पीड़ा में मरकर वह चैत्य के पास ही एक कुतिया के रूप में उत्पन्न हुई। ईर्ष्यालू मनुष्य पुण्यवान होने के बावजूद भी शुभ गति को प्राप्त नहीं होता। वह बार-बार चैत्य के भीतर आवागमन करने लगी, क्योंकि पूर्वजन्म में अभ्यस्त शुभ या अशुभ मोह अन्य जन्म में भी प्राप्त होता है। अन्य सभी रानियाँ भी हर्ष से अपने और कुंतलदेवी रानी के चैत्य में पूजा करने लगीं, क्योंकि सत्पुरुषों को किसी भी कार्य में स्व–पर की बुद्धि नहीं होती, तो फिर धर्म में तो कैसे हो? एक बार उस नगर के उद्यान में कोई केवलज्ञानी मुनि पधारे। यह सुनकर अंत:पुर और परिवार सहित राजा ने उनके पास जाकर उन्हें प्रणाम किया। देशना के अंत में हर्षप्राप्त रानियों ने गुरु से पूछा-"वह पुण्यशाली कुंतलदेवी रानी मरकर कहां उत्पन्न हुई?" गुरु ने फरमाया-"ईर्ष्यावश उसका गर्व वृद्धि को प्राप्त हुआ था, अतः उसने अपना सर्व पुण्यकर्म मलिन कर लिया। अत्यधिक विस्तारयुक्त मत्सरभाव से बांधे हुए दुष्कर्म के योग से वह मरकर अपने ही चैत्य के समीप कुतिया के रूप में उत्पन्न हुई है। अतः सभी कार्यों में मत्सर का त्याग करना चाहिए, क्योंकि खटाई के द्वारा दूध की तरह मत्सर के कारण पुण्य का नाश होता है।"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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