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________________ 395/श्री दान-प्रदीप अपनी कीर्ति का श्रवण न होने से और अपने भाई की कीर्ति को सर्वत्र श्रवण करके वह अपने भाई पर शत्रु के समान द्वेष रखने लगा। उसी द्वेष के कारण उसने राजा के सामने झूठी चुगली करके अपने भाई का सर्वस्व राजा के द्वारा हरण करवा लिया। धिक्कार है ऐसी ईर्ष्या को! इसी कारण से धनद को वैराग्य उत्पन्न हुआ। अतः उसने साधुजी के पास दीक्षा ग्रहण करके तपस्या की और सौधर्म देवलोक में देव बना। नन्द की दुष्टता का वृत्तान्त लोगों ने जाना, तो लोक में उसकी अत्यधिक निन्दा हुई। अतः संतप्त होकर नन्द ने तापस दीक्षा अंगीकार की और मरण प्राप्त करके असुरकुमार देव बना। वहां से च्यवकर तुम धनसार नामक श्रेष्ठी बने हो। तुमने पूर्वजन्म में दान दिया था, अतः इस भव में तुम्हें अत्यधिक सम्पत्ति प्राप्त हुई। पर तुमने कीर्ति प्राप्त करने की इच्छा से ईर्ष्या सहित गर्व किया था। तुम स्वभाव से कृपण भी थे, अतः तुम्हारी सम्पदा का दान और भोग में उपयोग न हो सका। इसी कारण से निरन्तर तुम्हारा अपवाद प्रवर्तित हुआ और तुम हंसी के पात्र बने, क्योंकि मूढ़ मानस जिस अर्थ के लिए प्रवर्तन करता है, उसके विपरीत फल की ही प्राप्ति उसे होती है। तुमने क्रोध के आवेश में अपने बड़े भाई के धन का हरण करवाया था, अतः तुम्हारा भी समग्र धन भी एक साथ एक ही बार में नाश को प्राप्त हुआ। प्रायः ईर्ष्यालू मनुष्यों को सत्पुरुषों के गुणों में ईर्ष्या होती है और उस ईर्ष्या के कारण उनकी मनोवृत्ति मलिन बनती है। जिसके कारण मर्मस्थान को बींधनेवाले दुष्कर्म को वे बांधते हैं। इस विषय पर कुंतलदेवी रानी का दृष्टान्त सुनो इसी भरतक्षेत्र में इन्द्र की नगरी के समान अवनिपुर नामक नगर है। उसमें सर्व शत्रुओं को त्रस्त करनेवाला जितशत्रु नामक राजा था। गुण की सम्पदा के द्वारा श्लाघनीय उस राजा के पाँचसौ रानियाँ थीं। वे सभी उदार, सर्व प्रकार का दान करनेवाली, लोगों में मान्य और पुण्यकार्य में अत्यन्त आदरयुक्त थीं। उन सभी के मध्य कुंतलदेवी नामक पट्टरानी मात्र बाहर से ही शोभित थीं। अन्य रानियाँ निष्कपट भाव से सम्यग् प्रकार से धर्मकर्म में तत्पर रहती थीं, अतः वे तत्त्वतः शोभित थीं। सभी रानियों को राजा की कृपा से अत्यधिक सम्पदा प्राप्त थी। प्रसन्न हुआ पति स्त्रियों के लिए कल्पवृक्ष से भी अधिक फलदायक होता है। अतः प्रत्येक रानी ने अद्भुत चैत्य करवाये। महात्माओं की सम्पदा पुण्य की उपकारक होती हैं। उन चैत्यों में उन्होंने स्वर्ण की सुन्दर जिन-प्रतिमाएँ भरवायी थीं। सत्पुरुषों के भाव पुण्यकार्य में निरन्तर वृद्धि को प्राप्त होते हैं। उन चैत्यों में वे निरन्तर स्नात्रादि विशाल उत्सव करने लगीं, क्योंकि चैत्य में विशाल पूजाओं का आयोजन किया जाय, तो स्व-पर के लिए बोधि का कारण बनती हैं। उन सभी रानियों पर वक्र हृदय को धारण करनेवाली कुंतलदेवी रानी ईर्ष्या करती थी।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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