SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 402
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 391/श्री दान-प्रदीप दिनेश्वर वैभार पर्वत के शिखर पर उदित हुए। उस समय गुण रूपी मणियों से शोभित श्रीश्रेणिक राजा, अभयकुमार, कृतपुण्य और सभी पुरजन प्रभु को वंदन करने के लिए गये। केवलज्ञान के द्वारा पदार्थों को सिद्ध करनेवाले और सिद्धार्थ राजा के कुल की कौस्तुभ मणि के समान भगवान ने पापनाशक देशना प्रदान की। उसके बाद अवसर देखकर बुद्धिमान कृतपुण्य ने दोनों हाथ जोड़कर दुःख का नाश करनेवाले श्री जिनेश्वर भगवान से विज्ञप्ति की-“हे जगन्नाथ! मैं उपकारी और अपराधरहित होने के बावजूद भी पग-पग पर विपत्ति और संपत्ति को कैसे प्राप्त हुआ?" फिर प्रभु ने अपनी बत्तीसी की शोभा से सभा को दैदीप्यमान करते हुए कहा-“हे वत्स! पूर्वभव में तूं वत्सपाल (बछड़ों को चरानेवाला) था। निरन्तर दरिद्रता से खेदित होते हुए तुमने एक बार किसी उत्सव के दिन घर-घर में खीर बनती हुई देखकर अपने घर आकर अपनी माँ से खीर मांगी। आधार-रहित और आपत्ति से दुःखी हुई तुम्हारी माता रोने लगी। यह जानकर पड़ोस की स्त्रियों ने दयापूर्ण होकर दूध, चावलादि खीर की सामग्री प्रदान की। तुम्हारी माता ने खीर तैयार की और थाली में परोसकर किसी आवश्यक कार्य से बाहर चली गयी। तभी एक मुनि मासखामण की तपस्या के पारणे के लिए वहां पधारे। उस समय आनन्द रूपी रोमांच के कवच से व्याप्त तुमने आसन से उठकर थाली में से एक भाग खीर मुनि को बहरा दी। फिर तुमने विचार किया कि ये मुनि एक मास के उपवासी हैं, अतः इतनी खीर तो कम होगी। ऐसा विचार करके तुम्हारी मति विकसित हुई। अतः तुमने फिर से खीर का आधा भाग मुनि को बहरा दिया, क्योंकि सत्पुरुषों की बुद्धि शुद्ध विचारयुक्त होती है। फिर घी और शक्कर थाली में ही रहे हुए देखकर उसे हिलाकर खीर का शेष भाग भी तुमने बहरा दिया। इस प्रकार निदान रहित तीन भाग में तुमने मुनि को दान देकर इस भव में अन्तरयुक्त भोगों को प्राप्त किया।" इस प्रकार पण्डितों में शिरोमणि उस कृतपुण्य को भगवान की देशना का श्रवण करके विषयों पर उद्वेग उत्पन्न हुआ। अतः वह वैराग्य को प्राप्त हुआ। फिर उसने अपने पुत्रों पर घर का सारा भार डालकर श्री वीर भगवान द्वारा प्रदत्त मुनिव्रत को स्वीकार किया। अनुक्रम से उग्र तपस्या करके विधिपूर्वक अनशन करके मन की प्रसन्नतापूर्वक सुखसमाधिपूर्वक स्वर्ग को प्राप्त किया। हे भव्य जीवों! इस कृतपुण्य के वृत्तान्त को सुनकर बिना विलम्ब हर्ष के साथ पात्रदान में प्रवृत्ति करनी चाहिए, जिससे तुम्हें विलम्ब के बिना स्वर्ग और मोक्ष की अद्भुत संपत्ति प्राप्त हो सके। जिसकी बुद्धि एकमात्र पुण्य के कार्य में ही तत्पर है, उस पुरुष को दान करते समय गर्व नहीं करना चाहिए, क्योंकि गर्व करने से दान के फल में विपरीतता आती है। वह गर्व दो प्रकार
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy