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________________ 392 / श्री दान- प्रदीप का होता है - स्व और पर। उनमें कुबुद्धियुक्त दातार पुरुष स्वयं ही शरीर, वाणी और मन से गर्व करता है। दान के गर्व से उन्मत्त हुआ दातार मत्त हस्ती की तरह अपने मस्तक और हाथों को हिला-हिलाकर स्व - पर के दुःख का कारणभूत बनता है। शरदऋतु के मेघ की तरह अपने उत्कर्ष की गर्जना के द्वारा मुख रूपी गुफा को वाचाल बनाता हुआ दातार किसकी हंसी का पात्र नहीं बनता? मेरे जैसा दातार कोई नहीं है - इस प्रकार मन में गर्व करता हुआ दातार अपने महान दान-पुण्य को अल्प कर देता है । दूसरों को दान देते हुए देखकर उसकी स्पर्द्धा करना पर से गर्व कहलाता है। महात्माओं ने इस गर्व का त्याग करने के लिए कहा है। बुद्धिमान पुरुष को किसी से भी स्पर्द्धा नहीं करनी चाहिए, तो फिर बान्धवादि से भी अधिक प्रिय साधर्मी के साथ स्पर्द्धा करना कैसे योग्य हो सकता है? धार्मिक पुरुष की धर्म-संबंधी स्पर्द्धा भी मन को मलिन बनाती है और उससे अशुभ कर्मों का ही बंध होता है । वह दशार्णभद्र की तरह जिसके मोक्ष समीप हो - उसी को संभव होती है। कदाचित् स्पर्द्धासहित दान देने से संपत्ति - प्राप्ति संभव हो सकती है, पर वह संपत्ति पुण्य का अनुबंध नहीं कर सकती और चिरकाल तक टिक भी नहीं सकती। इस पर धनसार श्रेष्ठी का उदाहरण है, जो इस प्रकार है : इस भरत क्षेत्र में मथुरा नामक नगरी है। वह न्यायधर्म से व्याप्त थी, समृद्धि से विशाल थी और जिनचैत्यों की ध्वजाओं के द्वारा इस तरह शोभित होती थी, मानो लक्ष्मी के द्वारा स्वर्ग का तिरस्कार कर रही हो। उस नगरी में धनसार नामक एक श्रेष्ठी रहता था । वह समग्र कृपण पुरुषों का अलंकार था । उसका 22 करोड़ द्रव्य पृथ्वी में दबाया हुआ था, 22 करोड़ द्रव्य ही उसी नगरी में व्यापार में लगाया हुआ था और 22 करोड़ द्रव्य ही देशान्तर में व्यापार में लगाया हुआ था। इस प्रकार वह 66 करोड़ द्रव्य का स्वामी था । फिर भी तिल के अंश के समान थोड़ा-सा भी धन उसने कभी भी धर्मकार्य में नहीं लगाया। वह सेठ जब भी याचकों को देखता, उसके नेत्रों में लवण का प्रवेश हो जाता था। कोई उससे याचना करता, तो वह अग्नि की तरह कोप से जाज्ज्वल्यमान बन जाता था । कदाचित् उसके बुजुर्ग उसे यात्रादि के निमित्त से बुलाते, तो वह अधम धनिक लुटेरों के समूह की तरह लोगों के समूह के बीच से पलायन कर जाता था। कोई उसे जबरन पकड़कर ले जाता, तो टीप आदि धन भरने के समय मानो अकस्मात् कोई दौरा पड़ा हो - इस प्रकार से दाँतों को जड़ीभूत करके महाकष्ट के द्वारा चेष्टारहित बन जाता था । अधिक क्या कहें? उसके घर के सदस्य भी वैद्य के पास रोगी की तरह उसके पास इच्छानुसार खाने-पीने में भी समर्थ नहीं थे। सम्पूर्ण नगरी में उसकी कृपणता की ध्वनि इस प्रकार उछली हुई थी कि कोई भी मनुष्य प्रातः काल होने पर कुछ भी खाये बिना उसका नाम तक अपनी जुबान पर नहीं लाते थे। इसी प्रकार धर्म, काम और मोक्ष पुरुषार्थ से
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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