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________________ 390/श्री दान-प्रदीप अभयकुमार ने नगर में उद्घोषणा करवायी-"जो भी मनुष्य कुटुम्बसहित इस यक्ष को नमस्कार करने के लिए नहीं आयगा, उसे व्याधिसहित मन की पीड़ा होगी।" इस प्रकार अभयकुमार की उद्घोषणा को सुनकर सभी पुरजन उस यक्ष की श्रेष्ठ पूजा के द्वारा सेवा करने के लिए आने लगे। उस समय बुद्धिमान अभय और कृतपुण्य छिपकर एक द्वार से प्रवेश करते और दूसरे द्वार से निकलते लोगों पर नजर रखने लगे। तभी अपनी लीला के द्वारा वाचाल व चोटीयुक्त लगभग पाँच-पाँच वर्ष के चारों बालकों ने जिनका हाथ पकड़ा हुआ था, वे कृतपुण्य की चारों स्त्रियाँ प्रासाद में आयीं। पति के समान आकृतिवाले उस यक्ष को देखकर पति का स्मरण होने से उनके नेत्रों में अश्रु आ गये। फिर कम्प और रोमांचसहित वे बोलीं-“हे यक्ष! यह मजाक हमारे स्वामी ने ही किया है, तो हम तुम्हें लाखों मोदक देंगे।" ऐसा कहकर चारों तरफ दृष्टि डालते हुए उन्होंने अपने पति को देखा। उनके पीछे कामदेव ने तुरन्त अपने पाँच बाण साधे। उस समय वे चारों पुत्र भी 'पिताजी-पिताजी" कहने लगे, उनके नेत्र हर्ष से प्रफुल्लित हो गये और वे यक्ष की प्रतिमा के उत्संग में चढ़कर बैठने लगे। तब कृतपुण्य ने अभय से कहा-"ये मेरी प्रियाएँ भाग्य से व आपके प्रयास से प्राप्त हुई हैं। कुल रूपी आकाश में सूर्य के समान ये मनोहर पुत्र भी मेरे ही हैं।" फिर स्थिरबुद्धि से युक्त अभयकुमार ने वृद्धा को देशत्याग का हुक्म सुनाया और लक्ष्मीसहित स्त्रियों को कृतपुण्य को सौंप दिया। उसके बाद वह अनंगसेना वेश्या भी यक्ष के प्रासाद में आयी और कृतपुण्य की प्रतिमा को देखकर भावविह्वल हो गयी। गद्गद कण्ठ से बोली-“हे प्रभु! शुभ शकुन और शुभ स्वप्नादि के पुष्प तुल्य आपके दर्शन हुए हैं। अब उस प्रिय के दर्शन रूपी फल की मुझे प्राप्ति हो।" ऐसा बोलकर चारों तरफ देखने लगी। तभी अष्टमी के चन्द्र के समान कपाल से युक्त उसने अपने स्वामी को देखा। तुरन्त ही उसके पास आकर उसने प्रीतिपूर्वक कहा-"हे जीवितेश! अनेक प्रयत्नों के द्वारा मैंने देश-देश और नगर-नगर में आपकी शोध करवायी, पर मुझ मन्दभागी को आप प्राप्त नहीं हुए। मेरे इस वेणीदण्ड का मोचन कभी भी परपुरुष के आश्रित नहीं हुआ। आज आप अपने हाथ से इसका मोचन करो।" तब अभयकुमार की आज्ञा से कृतपुण्य उन पाँचों प्रियाओं को लेकर अपने घर गया। सात किरणोंवाली अग्नि की तरह दैदीप्यमान वह कृतपुण्य प्राप्त हुई विशाल समृद्धि के योग से सातों प्रियाओं पर अतुल प्रीति रखता हुआ तेज के द्वारा शोभित होने लगा। उसके बाद एक दिन मोह रूपी अन्धकार का नाश करनेवाले श्रीमहावीर जिनेश्वर रूपी
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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