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________________ 389/ श्री दान-प्रदीप इस प्रकार लोभ दिखाकर उस कन्दोई ने वह मणि उससे ले ली। उसी समय श्रेणिक राजा का सेचनक हाथी स्नान करने के लिए नदी में उतरा। तभी उसे तन्तु नामक जलजन्तु ने पैर में पकड़ लिया। वह ताकत लगाकर भी अपने आपको छुड़वा नहीं सका। तब भयभीत होते हुए सैनिकों ने राजा को जाकर बताया। राजा ने बुद्धिनिधान अभय मंत्री को बताया। यह सुनकर अभयकुमार ने भण्डार में से जलकान्त मणि मंगवायी। पर अनेक रत्नों में मिल जाने के कारण वह जल्दी से हाथ नहीं आयी। ज्यादा समय बीत जाने पर कहीं हस्तीरत्न का कुछ अशुभ न हो जाय-ऐसा विचार करके राजा ने पूरे नगर में उद्घोषण करवायी-"जो कोई शीघ्र ही जलकान्त मणि को लेकर आयगा, उसे राजा आधा राज्य देगा व अपनी पुत्री से विवाह करवायगा।" इस प्रकार के पटह को सुनकर कन्दोई का मन अत्यन्त प्रसन्न हुआ। उसने तत्काल पटह का स्पर्श करके राजा को वह जलकान्त मणि दे दी। राजा ने उस मणि से जैसे ही जल का स्पर्श किया, नदी का जल दो भागों में विभक्त हो गया। यह भूमि है-इस भय से व्याकुल होते हुए वह जलजन्तु तुरन्त हाथी का पैर छोड़कर वहां से भाग गया। तब वह हस्ती क्षेमकुशल होकर क्रीड़ा करने लगा। उधर कन्दोई के मन में भी अनेक मनोरथ क्रीड़ा करने लगे। ___"अरे! इस कन्दोई को मैं अपनी राजकन्या किस प्रकार परणाऊँ?"-इस चिन्ता से राजा पश्चात्ताप करने लगा। यह जानकर अभयकुमार ने धमकी-भरे वचनों से कन्दोई पर प्रहार किया। तब उसने हकीकत प्रकट की। यह सुनकर अभयकुमार ने कहा-"निश्चय ही कृतपुण्य ही इस प्रकार की सम्पत्ति का मालिक हो सकता है। कल्पवृक्ष मेरुपर्वत के सिवाय अन्यत्र संभवित नहीं है। उसके बाद राजाज्ञा से कृतपुण्य ने राजकन्या के साथ विवाह किया और आधा राज्य भी पाया। भाग्य से क्या दुर्लभ है? दाक्षिण्य और चतुराई आदि गुणों रूपी रत्नों के समुद्र के समान कृतपुण्य की कलावान अभयकुमार के साथ गाढ़ प्रीति हो गयी। ___ एक बार कृतपुण्य ने अभयकुमार से कहा-“हे मित्र! इस नगर में पुत्रसहित मेरे चार स्त्रियाँ और हैं। पर मैं उनका घर नहीं जानता हूं।" यह सुनकर अभयकुमार ने हंसकर पूछा-"तुम स्त्रियाँ जानते हो, पर घर नहीं जानते-यह आश्चर्य की बात है।" तब कृतपुण्य ने पूर्व का सारा वृत्तान्त उसे निवेदन किया। यह सुनकर अभयकुमार ने दो दरवाजों से युक्त एक प्रासाद बनवाया। उसमें एक द्वार प्रवेश करने के लिए और दूसरा निर्गमन करने के लिए था। फिर कृतपुण्य के समान आकृतिवाली यक्ष की लेप्यमय प्रतिमा करवाकर उस प्रासाद में स्थापित की। सत्पुरुषों की बुद्धि के पार को कौन पा सकता है? फिर
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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