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________________ 351/ श्री दान-प्रदीप अपनी समृद्धि के द्वारा इन्द्र के नगर का पराभव करनेवाला और समग्र पृथ्वी का अलंकार रूप अचलपुर नामक नगर था। उस नगर में धनिकों के महल मणियों की कान्ति के द्वारा चारों तरफ से प्रकाशित होते थे। फिर भी रात्रि में मात्र मंगल के लिए वे धनिक अपने महलों में दीप जलाते थे। उस नगर में पराक्रम के द्वारा सर्व दिशाओं पर आक्रमण करनेवाला, इन्द्र के तुल्य बलवाला और शत्रु रूपी अन्धकार का नाश करने में सूर्य के समान सूरतेज नामक राजा राज्य करता था। उस राजा का 'धाराधर (तलवार) युद्ध में धाराजल का विस्तार करता था, उसी समय शत्रुओं के मुख में तृण की उत्पत्ति होती थी यह 'आश्चर्य ही था। उस नगर में सर्व व्यापारियों में शिरोमणि धनपति नामक श्रेष्ठी रहता था। उसका मन रूपी मत्स्य निरन्तर धर्म रूपी जलाशय में निमग्न रहता था। वह हमेशा उचितता के अनुसार सुपात्रादिक में दान देकर अपने धन के समूह को अत्यन्त कृतार्थ करता था। जैसे मेघ की वृष्टि से नदियाँ विस्तार को प्राप्त होती हैं, वैसे ही उसकी सम्पत्ति प्रत्येक व्यापार में पुण्योदय से पग-पग पर वृद्धि को प्राप्त होती थी। परोपकार से शोभित और निरन्तर वृद्धि को प्राप्त मनोहर संपत्ति के द्वारा वह साधारण उद्यान की तरह प्रसिद्धि को प्राप्त था। __ उसके पड़ोस में एक धनावह नामक वणिक रहता था। वह कृपणतादि दोषों का निवास स्थान और अभाग्यवंत पुरुषों में शेखर रूप था। वह दुर्भागी जिस-जिस व्यापार में धन डालता था, उस व्यापार में हाथ में रखे हुए जल की तरह खोट ही आती थी। चोरादि भी उसके धन को उपद्रवित कर देते थे, क्योंकि दैव के प्रतिकूल होने पर सब कुछ प्रतिकूल ही होता है। जैसे दावानल वन का नाश करता है, वैसे ही थोड़े ही काल में उसने अपने पिता का सारा धन नष्ट कर दिया। उसके बाप-दादा का पुराना घर फाल्गुन महीने के वृक्ष के समान हो गया, क्योंकि निर्धनता के कारण उस घर की सार-सम्भाल अच्छी तरह नहीं हो पाती थी। लक्ष्मी के पति धनपति सेठ के दृष्टि दोष का नाश करने के लिए मानो काजल का टीका हो-इस प्रकार वह पड़ोसी शोभित होता था। उन दोनों की वैसी अवस्था देखकर लोग उन्हें पूर्वजन्म के वृद्धिप्राप्त मूर्तिमान पाप और पुण्य हो-इस प्रकार मानते थे। उस धनावह वणिक की निरन्तर विकास को प्राप्त निर्धनता ऐसा उपद्रव करने लगी कि वह अपने रहने के घर को बेचने के लिए भी तैयार हो गया। उस समय 1. दूसरे पक्ष में धाराधर अर्थात् मेघ। 2. तलवार की धारा रूपी जल, मेघ के पक्ष में धाराबंध जल। 3. शरण में जाते समय मुख में तृण लेने का रिवाज है। 4. जल की वृष्टि होते ही तुरन्त घास नहीं उगती, पर शत्रु के मुख में तुरन्त तृण उत्पन्न हुआ-यह आश्चर्य ही है। 5. फाल्गुन मास में वृक्षों के पत्ते झड़ जाने से वह लूंठ के समान हो जाता है। 6. किसी को नजर लगने का दोष दूर करने के लिए कपाल में काजल का टीका लगाया जाता है।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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