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________________ 350/श्री दान-प्रदीप पिंडं सिज्जं च वत्थं च, चउत्थं पायमेव य। अकप्पियं न इच्छिज्जा, पडिग्गहिज्ज कप्पि।। भावार्थ:-आहार, शय्या, वस्त्र और चौथा पात्र-ये चार अकल्प्य हो, तो उसकी इच्छा नहीं करनी चाहिए। पर कल्प्य हो, तो ही ग्रहण करना चाहिए।। वह पात्र तुम्बड़े आदि का बना हो, तो यतियों को देना योग्य है, क्योंकि वैसे पात्र को ग्रहण करने की ही जिनेश्वरों की आज्ञा जिनागमों में है। उस विषय में स्थानांग सूत्र में कहा "साधु अथवा साध्वी तीन प्रकार के पात्र को धारण करते हैं अथवा त्याग करते हैं। वे इस प्रकार हैं-तुम्बड़े का पात्र, लकड़ी का पात्र और मिट्टी का पात्र।" अन्यमत के शास्त्रों में भी कहा है :अलाबु दारुपात्रं च, मृन्मयं विदलं तथा। एतानि यतिपात्राणि, मुनिः स्वायंभुवोऽब्रवीत्।। भावार्थ:-तुम्बड़े का पात्र, काष्ठ का पात्र, माटी का पात्र और बांस का पात्र-ये ही पात्र यतियों को कल्पते हैं। ऐसा मनु नामक मुनि ने कहा है।। आचार से शोभित मुनियों को धातु के पात्र नहीं कल्पते हैं, क्योंकि धातुमय पात्र का परिग्रह करने से उनकी निर्ग्रन्थता नष्ट होती है। इस विषय में दशवैकालिक में कहा है : कंसेसु कंसपाएसु, कुंडमोएसु वा पुणो। भुजंतो असणपाणाई, आयारा परिभस्सई ।। भावार्थ:-कांस्य में, कांस्य के पात्र में अथवा अन्य धातु के गृहस्थ संबंधी बर्तन में गृहस्थ के घर में आहार–पानी को वापरते हुए साधु आचार से भ्रष्ट होता है।। धातु का पात्र रखने से उस पर मूर्छा होती है, चोरी की आशंका होती है, पलिमंथ (उपाधि) होती है और क्लेश होता है। इस प्रकार अनेक अनर्थों के समूह की प्राप्ति होती है। अतः मुनियों को शास्त्रोक्त पात्र का दान करना ही योग्य है, क्योंकि पुण्य क्रिया जिनेश्वरों की आज्ञानुसार करने से वह हितकारक होती है। मोक्ष के कारण रूप योगों में प्रवृत्ति करनेवाले तपस्वियों को पात्र का दान करने से कौन मोक्ष रूपी संपत्ति का पात्र नहीं बनता? जो बुद्धिमान पुरुष विधिपूर्वक सुपात्र को पात्र का दान देता है, वह धनपति की तरह स्वयं ही लक्ष्मी को प्राप्त करता है। उसकी कथा इस प्रकार है :
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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