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________________ 352 / श्री दान- प्रदीप उसके घर का पूरा मूल्य देकर धनपति सेठ ने उस घर को खरीद लिया, क्योंकि पुण्यवान पुरुष ही सर्व संपत्ति का शरण रूप होता है । फिर निष्कपट बुद्धियुक्त धनपति ने उस घर को गिराकर वहां नया मकान बनवाना प्रारम्भ किया, क्योंकि धन की वृद्धि होने से घर आदि की समृद्धि भी बढ़ती है। उस धनपति की आज्ञा से कर्मकर मानो उसकी गुप्त रही हुई विशाल समृद्धि को प्रकट करना चाहते हों - इस प्रकार से हर्षपूर्वक खुदाई का कार्य करने लगे। तभी धनपति के अगणित पुण्यों के समूह के रूप में महानिधि उस भूमि में से प्रकट हुई। उसके पूर्व के उदय में आये हुए महापुण्य रूपी भोजन को जीमने के लिए उस निधान में से बड़े-बड़े स्वर्णथाल निकले। मानो वहां के लोगों के यश रूपी अमृत का पान करने के लिए ही हों - इस प्रकार से मनोहर रजत की कटोरियों का समूह निकला। उस सेठ के घर आयी हुई लक्ष्मी के बैठने के लिए ही हो-इस प्रकार से सुन्दर स्वर्ण का सिंहासन उस निधान में से निकला । पुण्यलक्ष्मी रूपी नवीन कन्या के साथ मानो परिणय की इच्छा करते उस सेठ के अलंकार के लिए अलंकारों - आभूषणों की श्रेणी उस निधान में शोभित थी। उस सेठ का मनोरथ पूर्ण करने के लिए मानो कामकुम्भ हो - ऐसे अद्भुत और दैदीप्यमान स्वर्णकलश भी उसमें से निकले । सेठ के मूर्तिमान गुणों के समूह के समान निःसीम कांतियुक्त श्रेष्ठ जातिवंत रत्नों का समूह भी उस निधान में निकला। इस प्रकार की निधि को देखकर उसके नेत्र आश्चर्य से विकस्वर हो गये। तत्काल हर्षपूर्वक सेठ वह निधि अपने घर ले गया । यह बात जानकर उस घर का पूर्वस्वामी धनावह वणिक लोभान्ध होकर उस निधान को लेने के लिए धनपति श्रेष्ठी के साथ कलह करने लगा। उसने कहा- "मेरे पूर्वजों ने इस निधि का स्थापन किया था - ऐसा मैंने अपने बुजुर्गों के मुख से सैकड़ों बार सुना है । पर वह निधि किस स्थान पर गड़ी हुई है - यह ज्ञात न होने के कारण मूढमति मैंने उसे खोजने का उपक्रम कभी नहीं किया । अतः मेरी यह निधि बिना विचार किये मुझे सौंप दो । पराया धन होने से यह तुम्हारे द्वारा ग्रहण करने योग्य नहीं है । " इस प्रकार उस वाचाल ने झूठी कल्पना करके वचन रचना रची। मृषा भाषा से जीनेवाले पुरुष कभी स्खलना को प्राप्त नहीं करते। उसके बाद धनपति सेठ ने उत्तम पुरुषोचित वचन कहे - "हे भद्र! अगर यह तुम्हारी निधि है, तो खुशी से ग्रहण करो। पर इस बाबत में उत्तम पुरुषों की साक्षी में उस बात का विश्वास दिलाओ कि यह तुम्हारे पुरखों की संपत्ति है, जिससे शीघ्रता के साथ यह सम्पत्ति तुम्हें प्राप्त हो।” यह सुनकर उस वणिक ने कहा - "अहो ! तुम्हारी कैसी चतुराई ! मेरे घर में निकले हुए निधान के लिए तुम मेरे लिए ही साक्षी मांग रहे हो। ऐसी चतुराई का त्याग करके मेरी निधि मुझे सौंप दो। अन्यथा मैं अभी राजा के पास जाकर फरियाद करूंगा।”
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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