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________________ 326/श्री दान-प्रदीप किया। उधर भामह सार्थवाह वहां से चलकर कितने ही दिनों बाद दक्षिण देश के स्वामी अरिमर्दन राजा की नगरी में पहुँचा। उसने सभा में जाकर राजा को भेंट देकर प्रणाम किया। राजा ने भी उसका यथायोग्य सम्मान किया। उसके बाद ध्वजभुजंग के मूर्तिमान उज्ज्वल भक्तिराग के रूप में मणि और चोपाट राजा को समर्पित किया और कहा-“हे देव! उज्जयिनी नगरी के निवासी ध्वजभुजंग कुमार ने हर्षपूर्वक यह भेंट आपके लिए भेजी है।" मणि और स्वर्णमय अद्भुत पट्ट को देखकर राजा तथा सभी सभासद अत्यन्त आश्चर्यचकित हुए। फिर उछलते विस्मय रूपी समुद्र की तरंगों रूपी वाणी में राजा ने हर्ष से सभा के समक्ष कहा-"अहो! यह भेंट भेजनेवाले की उत्तमता किसके लिए विस्मयकारक नहीं है? कि जिसने मुझे देखे बिना ही मेरे लिए यह उपहार भेजा है। महात्मा परोपकार करने में मेघ के समान स्वजनपने की, बातचीत के परिचय की, प्रेम की या दर्शन की अपेक्षा नहीं रखते। शास्त्र में सत्पुरुषों का सर्वत्र ही उपकार सुना जाता है। वह आज इस महाशय ने सत्य रूप में दर्शा दिया है। उसने अकृत्रिम मित्रता के द्वारा स्वयं आगे बढ़कर मुझ पर ऐसा उपकार किया है। अतः मैं उसे अपना सारा साम्राज्य दे दं, तो भी उसके उपकार से उऋण नहीं हो सकता। फिर भी हे सार्थेश! मेरे चित्त को आनन्द प्रदान करने के लिए मैं तुम्हारे साथ उसके लिए पाँचसौ मदोन्मत्त हाथी भेजूंगा। तुम जाते वक्त उन्हें ले जाना।" । यह कहकर राजा ने उस सार्थवाह का सत्कार करके उसे महल में उतारा । सार्थवाह वहां राजा की प्रीति से अत्यन्त पराक्रम को प्राप्त हुआ। क्रय-विक्रय करते हुए कितने ही काल तक वहां सुखपूर्वक रहा। फिर उसका व्यापार का प्रयोजन पूर्ण हुआ। अतः राजा की आज्ञा लेकर और पाँचसौ हाथी साथ में लेकर वह अपने घर की तरफ वापस मुड़ा। उसने विचार किया-"अहो! परोपकार नामक कोई अद्भुत कल्पवृक्ष है, जो तत्काल बिना विचारे ऐसा फल प्रदान करता है।" इस प्रकार अंतःकरण में आश्चर्यचकित होते हुए और मित्र का अहर्निश स्मरण करते हुए वह सार्थवाह कितने ही दिनों में उज्जयिनी नगरी पहुंचा। लोगों के मुख से सार्थेश का आगमन सुनकर श्रेष्ठ बुद्धियुक्त ध्वजमुजंग अत्यन्त हर्ष के साथ उसके सामने गया। दूर से ही परस्पर एक-दूसरे को देखकर वे दोनों अत्यन्त प्रीति व उल्लास को प्राप्त हुए। फिर पास आने पर दोनों ने इस प्रकार हर्षपूर्वक परस्पर गाढ़ आलिंगन किया कि वे एक शरीर रूप ही नजर आने लगे। उसके बाद दोनों ने परस्पर कुशल वार्त्तादि प्रश्न किये, क्योंकि सत्पुरुष सर्वत्र औचित्य व्यवहार करने में सावधान होते हैं। फिर सार्थवाह
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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