SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 327/ श्री दान-प्रदीप ने उसी सरोवर के पास अपना सार्थ ठहराया। उसके बाद अपने तम्बू में ध्वजभुजंग को बुलाकर कहा-“हे मित्र! तुमने मेरे साथ मणि व चोपाट भेंट देने के लिए भेजी थी, वह मैंने दक्षिण देश के राजा को प्रदान कर दी। उसे देखकर अत्यधिक प्रसन्न हुए राजा ने मेरे साथ तेरे लिए पाँचसौ हाथी भेजे हैं। हे महाप्रभावी! तेरा अभंग भाग्य जागृत है कि जिससे राजा ने तेरे लिए पाँचसौ हाथी भेजे । प्रायः करके अन्य सभी धर्म दूसरे भव में फलित होते हैं। पर परोपकार तो इसी भव में तत्काल फलदायक होता है। परोपकारी को अपने आप ही संपदाएँ प्राप्त हो जाती हैं यह योग्य ही है, क्योंकि ऐसी दारिद्र्य अवस्था में भी तेरी परोपकारी बुद्धि जागृत है। जैसे व्रत की परीक्षा में प्राणत्याग कसौटी है और शूरता की परीक्षा में महायुद्ध कसौटी है, वैसे ही उपकार की परीक्षा में निर्धन भी कसौटी रूप है। उत्तम जातियुक्त इन पाँचसौ हाथियों के द्वारा तूं विशाल राज्य का उपभोग कर, क्योंकि साम्राज्य प्राप्त करवाने में तो एक ही हाथी भी समर्थ है।" इस प्रकार सुनकर और पाँचसौ हाथियों की प्राप्ति से आनन्दित हुए कुमार ने प्रीति के विस्तारपूर्वक उससे कहा-"अहो! उस राजा की अद्भुत उदारता तो देखो, कि जिसने एक पट्टमात्र भेजने से उसके बदले में इतने हाथी भेजे। उदार चित्तवाले व्यक्ति स्वयं पर जितना उपकार किया गया हो, उससे ज्यादा ही प्रत्युपकार करने की कोशिश करते हैं। देखो! विशाल वृक्ष पानी पिलानेवाले पुरुषों को पानी के प्रमाण से ज्यादा स्वादिष्ट फल प्रदान करते हैं। और भी, मुझे जो यह संपत्ति प्राप्त हुई है, वह भी तुम्हारी कृपा से ही प्राप्त हुई है, कमल की शोभा सूर्य के प्रताप से ही है। उस राजा ने प्रेमपूर्वक मुझे इतने अधिक हाथी भेजे हैं, उसका उपकार मेरे सिर पर भार रूप हो गया है। यह भार मैं कैसे उतार पाऊँगा? दूर रहे हुए उस राजा का मैं कुछ भी प्रत्युपकार करके उसका ऋण उतारने में समर्थ नहीं हूं। इन हाथियों को मैं वापस राजा के पास भेजूं-यह भी मेरे लिए शक्ति से परे है। अगर मेरे पास रखू, तो जिन्दगी-पर्यन्त उस राजा का देनदार बना रहूंगा। अतः इन हाथियों के द्वारा किसी का उपकार करना ही श्रेयस्कर है। सार में सार यही है कि किसी का भी उपकार करो। शालवृक्ष फल के द्वारा उपकार करता है, मेघ जल के द्वारा उपकार करता है, शीप मुक्तफल के द्वारा और पृथ्वी धान्य के द्वारा उपकार करती है। इस प्रकार अचेतन पदार्थ भी जब परोपकार करने में आसक्त है, तो मनुष्य तो चैतन्ययुक्त है। वह कैसे परोपकार करने में आसक्त न हो?" ऐसा विचार करके ध्वजभुजंग ने भामह से पूछा-"अब यहां से तुम कहां जाओगे?" भामह ने कहा-“मैं कन्यकुब्ज नामक पुर में जानेवाला हूं। ध्वजभुजंग ने पूछा-"उस पुर में कौन मुख्य है?"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy