SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 336
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 325 / श्री दान- प्रदीप जाने के बाद तुम्हीं ने वापस लौटायी है। अतः यह पूरी की पूरी तुम्हारे द्वारा खरीदी हुई के समान है। तो फिर अर्ध भाग लेने के लिए तुम क्यों निषेध करते हो?" इस प्रकार बार-बार मनुहार करने पर भी उस बुद्धिमान ने कुछ भी नहीं लिया, क्योंकि महापुरुष दारिद्र्य अवस्था में रहने के बावजूद भी परधन की स्पृहा नहीं करते। उसके बाद पृथ्वी पर उसकी ही अद्भुत निर्लोभता देखकर सार्थवाह भामह ने उस पर निःसीम प्रेमभाव धारण किया । ऐसे व्यक्ति पर किसको प्रीति नहीं होगी? फिर उदार बुद्धियुक्त सार्थवाह ने भेंट के रूप में उसे एक रत्न से शोभित मणि और स्वर्णमय एक चौपाट दी । अत्यधिक प्रेमभाव व मित्रता का वास्ता देने पर ध्वजभुजंग ने उसे ग्रहण कर लिया, क्योंकि महापुरुषों में स्वभावतः अगण्य दाक्षिण्य होता है। उसे लेकर ध्वजभुजंग ने विचार किया- "मैं जुआ खेलता हूं । अतः ये वस्तुएँ मेरे पास एक दिन भी टिकनेवाली नहीं हैं । अतः यह चौपाट किसी महापुरुष को भेंट करके उस पर उपकार करना योग्य होगा, क्योंकि परोपकार ही विद्वानों का जीवन है ।" इस प्रकार मन में विचार करके निश्चय करके उसने भामह से पूछा - "तुम किस देश की तरफ जा रहे हो?" उसने कहा- "मैं व्यापार करने के लिए दक्षिण दिशा की तरफ जाने का उद्यम कर रहा यह सुनकर ध्वजभुजंग ने कहा- "उस देश का जो भी राजा हो, उसे यह चोपाट आदि मेरी तरफ से भेंट कर देना ।" यह सुनकर सार्थवाह विशेष रूप से विस्मित हुआ - "अहो ! ऐसी दारिद्र्य अवस्था में भी इसमें कितनी परोपकारिता है !" फिर सार्थवाह ने यह कहकर चौपाटादि ग्रहण की कि तुम्हें भी अब मेरा वचन मानना होगा। ऐसा कहकर उदार बुद्धियुक्त सार्थवाह ने उसके न चाहते हुए भी जबरन उसे कितना ही धन दिया, क्योंकि प्रीति रूपी लता का यही फल है। उसके बाद चित्त में प्रसन्नता लेकर सार्थवाह आगे रवाना हुआ। फिर ध्वजभुजंग भी उसको कुछ दूर पहुँचाकर निर्भयता के साथ नगर में गया। उसने उस धन के द्वारा अपना सारा देना चुका दिया, क्योंकि समझदार पुरुष धन पास होने पर उधार सिर पर नहीं रखते। फिर हर्षपूर्वक कितना ही धन अपनी माता के पास भेजा, क्योंकि निर्धनता में भी अपने माता-पिता की सम्भाल करनेवाले ही पुत्र कहलाते हैं। वह कुमार बीच-बीच में जुआ खेलते हुए वहीं रहा । मानो अपने पुण्योदय की राह देख रहा हो - इस प्रकार से कितना ही काल वहां निर्गमन
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy