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________________ 22/श्री दान-प्रदीप बाद इसके साथ विवाह कर लूंगा। इसे यहां से कोई ले न जाय, इसलिए उसकी रक्षा के लिए यमराज की पुत्री के समान भयंकर, गीध पक्षी के समान आकृति को धारण करनेवाली राक्षसी विद्या वहां रख छोड़ी है। वहां रही हुई वह गृध्री निरन्तर विविध प्रकार के शब्द करती है। कभी तो वह शुभ वचन बोलती है कि तुम्हारा कुशल हो और कभी किसी समय ऐसा बोलती है कि अरे! तुम यहां कैसे आये? क्या तुम पर यमराज कुपित है? यहां से भाग जाओ। भाग जाओ। इस प्रकार जब वह बोलती है, तो उसके वचनों को सुननेवाला मनुष्य मुख से रुधिर का वमन करते हुए पृथ्वीतल पर लुढ़क जाता है और दुष्ट सर्प से डसे हुए की तरह तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। ऐसे दुष्ट प्रभाव से युक्त वह मायावी राक्षसी निरन्तर कन्या के पास ही रहती है। पर अगर कोई शब्दवेधी बाणों से उसके मुख को भर दे, तो उसकी शक्ति क्षीण हो जाने से वह तुरन्त निष्प्रभाव हो जायगी।" कुमार के इन वचनों का श्रवण करके राजादि सर्व सभा विस्मय को प्राप्त हुई। "अहो! इस कुमार का ज्ञान! अहो! इसकी बुद्धि!"-ऐसा कहकर सभी उसकी प्रशंसा करने लगे। फिर राजा ने कहा-“हे कुमार! तुमने राजकन्या का वृत्तान्त बताकर हमें प्रसन्न किया है। अब उसे वापस लाकर हमारे आनन्द में वृद्धि करो। समस्त कलाओं की निपुणता से शोभित तुम्हारे सिवाय अन्य कोई व्यक्ति उस कन्या को लाकर हमें खुशी देने में समर्थ नहीं है।" यह सुनकर मानो स्वर्ग से विश्वकर्मा इस धरातल पर अवतरित हुए हों, वैसे उस कुमार ने अपनी शिल्पकला के द्वारा आकाशगामी अनेक गरुड़ बनाये। अन्य किसी से भी पराभव को न प्राप्त होनेवाले ऐसे एक मुख्य गरुड़ पर कुमार आरूढ़ हुआ और अन्य गरुड़ों पर दूसरे योद्धा विविध प्रकार के शस्त्र हाथ में लेकर आरूढ़ हुए। श्रेष्ठ सुभटों से परिवृत्त विष्णु की तरह बलवान वह कुमार उस पर्वत की दिशा में आकाशमार्ग से रवाना हुआ। ___ क्षण भर में ही वह पर्वत पर पहुँच गया। वहां उसने उस राजकन्या को देखा। कसाईखाने में रखी गयी बकरी की तरह भय के कारण उसके नेत्र कम्पित हो रहे थे। उस समय उस गृध्री ने विपरीत शब्दों का उच्चारण किया। उन शब्दों के रंचमात्र श्रवण-योग से सभी सुभट मूर्छित हो गये। विशाल बुद्धि के स्वामी उस कुमार ने सर्व भाषा को जाननेवाली बुद्धि के द्वारा उस गृध्री के दुष्ट शब्दों के अभिप्राय को जान लिया । अतः उसके मुख खोलने के साथ ही शब्दवेध में निपुण कुमार ने एक क्षण भी गँवाये बिना उस राक्षसी के मुख को अपने बाणों की वर्षा से पूर्ण कर दिया और इसके साथ ही कन्या की प्रतिज्ञा को भी पूर्ण कर दिया। निरन्तर बाणों के प्रक्षेप से उसका मुख भर जाने के कारण उस राक्षसी का सारा प्रभाव क्षीण हो गया। उसके दुष्ट शब्दों को अल्प अंश ही श्रवण करने के कारण वे सुभट जल्दी ही चैतन्य होकर कुमार के पास आये। राक्षसी को निष्प्रभाव देखकर आश्चर्यचकित
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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