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________________ 21/श्री दान-प्रदीप उसका विवाह होता। अतः अब भी उसकी प्रतिज्ञा पूर्ण करने के बाद ही उसके साथ विवाह करना योग्य होगा।" प्रधान के इन वचनों को सुनकर सभी राजा उदास होकर म्लान मुख के साथ मौन होकर खड़े रह गये। उस समय मेघनाद कुमार ने आनन्दित होकर शीघ्रता के साथ उठकर पटह का स्पर्श किया, क्योंकि विद्याएँ कभी गुप्त नहीं रह सकतीं। उसने कहा-"आप सभी के देखते ही देखते मैं, लक्ष्मीपति राजा का पुत्र मेघनाद, उस कन्या की सभी प्रतिज्ञाओं को पूर्ण करूंगा।" यह सुनकर सारी सभा विकस्वर नेत्रों से दातार के सन्मुख याचकों की तरह कुमार के सन्मुख देखने लगी। उसकी आकृति, पराक्रम व वाणी से विस्मित होते हुए राजा ने भी कहा-“हे भद्र! आपके आगमन से यह निश्चित होता है कि अभी तक हमारा भाग्य जागृत है। सर्व अवयवों में उत्तम लक्षणोंवाली तुम्हारी आकृति ही बता रही है कि तुम्हारी शक्ति निःशंक रूप से इस विश्व के परे है। जैसे अनेक मणियों के बीच चिन्तामणि रत्न होने के कारण वह दिखायी नहीं पड़ता, वैसे ही इतने राजाओं के मध्य पधारे हुए आप हमें हमारे प्रमाद के कारण नजर नहीं आये। मेरी लक्ष्मीपति राजा के साथ परम प्रीति है। उनका पुत्र हमें इस आपदा से मुक्त करे, यह तो अत्यन्त योग्य है। हम तो शोक रूपी दावानल के ताप से तप्त हैं। अतः अब आप हमारी पुत्री की वार्ता रूपी अमृत-वृष्टि के द्वारा हमें आश्वस्त करेंगे, तो बहुत ही अच्छा हो।" इस तरह राजा ने जब सन्मानपूर्वक कुमार से पूछा, तो अपनी निमित्त विद्या के उपयोग द्वारा अच्छी तरह से जान लेने के बाद कुमार ने कहा-“हे राजन्! हेमांगद नामक कोई विद्याधर इधर से आकाशमार्ग द्वारा गमन कर रहा था। राजकन्या ने उसके हृदय का हरण कर लिया। अतः गवाक्ष में बैठी उस कन्या को वह उठाकर ले गया है। यहां से एक हजार योजन की दूरी पर रत्नसानु नामक पर्वत है। वहां देव भी नहीं जा सकते, उस जगह पर वह विद्याधर राजकन्या को ले गया है। वहां जाकर विद्याधर ने सैकड़ों मिष्ट वचनों के द्वारा उस कन्या की अनुनय की, पर दरिद्र की तरह उसके वचनों को राजकन्या ने स्वीकार नहीं किया। बल्कि उसने कहा कि जो मेरी प्रतिज्ञा को पूर्ण करेगा, उसे ही मैं अपना पति बनाऊँगी, अन्य किसी को भी नहीं। उसके इन वचनों को सुनकर क्रोधित होते हुए विद्याधर ने उसे उसी भयंकर स्थान पर छोड़ दिया और स्वयं अपने नगर को लौट गया। दुष्ट के मन में दया को कहां स्थान? विद्याधर के मन में तो चल रहा था कि फिर कभी यहां आकर इसे समझाऊँगा और उसके
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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