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________________ 314/श्री दान-प्रदीप अश्वादि वाहनों को अलंकारों से विभूषित किया जाने लगा। इस प्रकार मंत्री, सामन्तादि सर्व परिवार कुमार के सन्मुख गया। इस प्रकार महा उत्सवपूर्वक कुमार ने नगर-प्रवेश किया। उस समय अपने दानपुण्य के समान उज्ज्वल छत्र उसके मस्तक पर शोभित था। मानो कुमार के प्रताप की लक्ष्मी और यश की लक्ष्मी के विलास के लिए दो श्वेत कमल हों इस प्रकार से दो चामरों के द्वारा वह शोभित हो रहा था। वह याचकों को उनकी इच्छा के अनुसार दान देते हुए उनकी दारिद्रयता रूपी विधि के लेख को निरर्थक बना रहा था। उसके पीछे दिव्य खाट पर आरूढ़ उसकी चारों प्रियाएँ शोभित हो रही थीं। वह स्वयं हाथी के स्कन्ध पर आरूढ़ था। इस प्रकार विशाल वैभवयुक्त कुमार समृद्धि के द्वारा पुरजनों को आश्चर्यचकित करते हुए पिता के महल के पास पहुँचा। वहां हाथी से उतरकर अत्यन्त हर्ष के कारण विकस्वर नेत्रयुक्त कुमार ने सभा में आकर वहां बैठे हुए राजा को भक्तिपूर्वक प्रणाम किया। राजा ने भी मानो अमृतवृष्टि से स्नात हो-इस प्रकार हर्षित होकर पुत्र का सर्वांग से आलिंगन किया। राजा के नेत्र हर्षाश्रुओं से पूरित हो गये। फिर राजा ने आनंदपूर्वक पुत्र से कहा-"हे वत्स! तेरे वियोग से उत्पन्न दुःख रूपी दावानल ने इतने दिवसों तक हमें संतप्त बनाया है। वह सर्व ताप आज तुम्हारे समागम रूपी आनंद से उत्पन्न हुए अश्रुजल के प्रवाह के द्वारा शांत हुआ है। तेरे दर्शन रूपी आनंदरस के द्वारा हमारे नेत्र अत्यन्त तृप्त हुए हैं। अब तृषित हुए कर्णयुगल को तेरे वृत्तान्त रूपी अमृतपान के द्वारा तृप्त कर।" __यह सुनकर कुमार ने अपना वृत्तान्त अपने मुख से बताने में संकोच का अनुभव किया। तब उस राजपुरुष ने आद्योपान्त अद्भुत वृत्तान्त कहा। वह सब सुनकर राजा अत्यन्त प्रसन्न हुआ और आश्चर्य को प्राप्त हुआ। फिर पुत्र को राज्य पर स्थापित करके धर्म का आराधन करके स्वर्ग में गया। उसके बाद सिंहलसिंह राजा किसी से हरा न जा सके-ऐसे पिता के साम्राज्य को भोगने लगा। वह हमेशा दीन-हीन आदि को निदानरहित दान देने लगा। उसने अपनी पृथ्वी का मध्यभाग जिनेश्वरों के चैत्यों द्वारा शोभित किया। शुद्धबुद्धि से युक्त राजा ने अनंत सुख रूपी मोक्ष के लिए श्रावकधर्म का चिरकाल तक पालन किया। इस प्रकार गृहस्थधर्म का पालन करके सिंहलसिंह नामक राजा लान्तक नामक देवलोक में गया। वहां से च्यवकर वह और उसका देव मित्र-दोनों महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर चारित्र ग्रहण करके कर्मों का उन्मूलन करके मोक्ष पद को प्राप्त करेंगे। हे भव्यजनों! इस प्रकार पूर्वकथित दोनों भाइयों को अद्भुत समृद्धि प्रदान करने के कारणभूत मुनि को दिये गये औषधिदान रूपी पुण्य का श्रवण करके आप सभी को भी दान
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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