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________________ 313/ श्री दान-प्रदीप इस प्रकार उसके वचनों का श्रवण करके कुमार के लोचन भी अश्रुओं से व्याप्त हो गये। उसने खेदखिन्न होते हुए विचार किया-"विषय रूपी समुद्र में मग्न मुझ अधम को धिक्कार है! कि मैंने अपने माता-पितादि को इस दशा में पहुँचाया है। जो पुत्र माता-पितादि को प्रसन्न रखते हैं, वे ही पवित्र पुत्र कहलाते हैं। पर मैं तो उनका चित्त मात्र संतप्त करने में ही कारणभूत बना हूं। अतः मैं तो उनका पुत्र ही नहीं हूं। अब भी मुझे जल्दी ही वहां जाकर माता-पितादि को प्रसन्न करना चाहिए और उनके चरण-कमलों की सेवा करनी चाहिए।" इस प्रकार विचार करके उस राजपुरुष को साथ लेकर कुमार राजा के पास गया और कहा-“मेरे माता-पितादि ने मुझे बुलाने के लिए इस राजपुरुष को भेजा है। मेरे माता-पितादि सर्व जन मेरे वियोग से अत्यन्त दुःखी है। अतः मेरा मन उन सभी से समागम करने के लिए अत्यन्त उत्कण्ठित हो रहा है। हे देव! मुझे शीघ्र ही अपने नगर में जाने की आज्ञा प्रदान कीजिए।" यह सुनकर राजा ने प्रीति के पूर का विस्तार करनेवाली मधुर वाणी में कहा-“हे वत्स! आप पधारें-अगर मैं ऐसा कहूं, तो प्रीति की हीनता होगी। यहीं रहें-ऐसा कहूं, तो आपके प्रयाण में अमंगल होगा। अगर कुछ भी न कहूं, तो आपकी उपेक्षा होगी। अतः अब मैं क्या कहूं? अथवा तो मैं यह मानता हूं कि वियोग से संतप्त आपके माता-पितादि को शीघ्र प्रीतियुक्त बनायें अर्थात् माता-पितादि को प्रसन्नता प्रदान करें।" इस प्रकार कुमार को आज्ञा प्रदान करके दिव्य वस्त्रादि के द्वारा उसका सन्मान करके राजा ने पुत्री सहित कुमार को विदा किया। उसके बाद कुमार, चारों पत्नियाँ तथा उस राजपुरुष को साथ लेकर कंथा के साथ उस दिव्य प्रभावयुक्त खाट पर बैठकर क्षणभर में सिंहलद्वीप के बाहर क्रीड़ा उद्यान में पहुँच गया। फिर उस राजपुरुष ने आगे जाकर राजा को बधाई दी-“हे देव! अब खेद का त्याग करें और हर्ष को धारण करें, क्योंकि चार प्रियाओं व अद्भुत वस्तुओं के साथ आपका पुत्र बाहर उद्यान में ठहरा हुआ है।" यह सुनकर पुत्रप्राप्ति के हर्ष से राजा का अंतःकरण भर गया। उसने सेवकों द्वारा नगर में भिन्न-भिन्न उत्सवों की इस प्रकार घोषणा करवायी-स्थान-स्थान पर मन को रोमांचित करनेवाले मांचे बनवाये, प्रत्येक चौराहे पर केले के स्तम्भों से शोभित तोरणद्वार बनवाये। राजमार्ग पर केसर का पानी छिड़काया, जगह-जगह मोतियों के स्वस्तिक बनवाये, घर-घर विशाल ध्वजाएँ बंधवायीं, भ्रमण करते भ्रमरों की झंकार से शोभित मनोहर पुष्पमालाएँ चारों तरफ लटकवायीं। नृत्यांगनाएँ दर्शकों की दृष्टि में शीतलता उत्पन्न करनेवाला नृत्य करने लगी, आकाश को ध्वनित करते हुए मृदंगों और वाद्यन्त्रों की गूंज चारों तरफ व्याप्त होने लगीं, कुलवती स्त्रियाँ रसयुक्त मंगल गीत गाने लगी, बन्दीजन उच्च स्वर में बिरुदावलियाँ गाने लगे,
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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