SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 323
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 312/श्री दान-प्रदीप शास्त्रों में सुना जाता है कि श्रीमहावीरस्वामी पर गोशालक ने तेजालेश्या छोड़ी थी, उससे भगवान को अतिसार की व्याधि हो गयी। इसके लिए रेवती नामक श्राविका ने कोलापाक का दान दिया था। उसके प्रभाव से रेवती आनेवाली चौबीसी में 17 वाँ तीर्थंकर बनेगी।" इस प्रकार मुनियों में शिरोमणि के समान चारण मुनि की वाणी का पान करके कुमारादि सभी हर्ष को प्राप्त हुए। पर एकमात्र मंत्री ही हर्ष को प्राप्त नहीं हुआ। उस समय विशेष प्रकार के शुभ अध्यवसाय के उल्लास से कुमार को जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। उसने अपने पूर्वभव को उसी रूप में देखा। कुमार का अंतःकरण महासंवेग से भावित हुआ और उसने मुनीश्वर के पास शुद्ध श्रावकधर्म ग्रहण किया। राजादि अन्य सभी ने भी सम्यक्त्व अंगीकार किया, क्योंकि रत्नाकर के पास जाकर किसे रत्न ग्रहण करने की इच्छा न होगी? उसके बाद धर्मप्राप्त लोगों को उच्च गति में ले जाने की इच्छा करते हों-इस प्रकार से चारण मुनि आकाश में उड़ गये। उसके बाद हर्षित राजा ने जामाता को उत्तम हाथी, जातिवंत घोड़े, स्वर्ण और रत्नादि पुष्कल भेंट देकर उसका सम्मान किया। फिर उस दुष्ट मंत्री का वध करने के लिए आरक्षकों को आदेश दिया। इस भव में राजा ही दुष्टजनों को शिक्षा प्रदान करते हैं। पर अत्यन्त करुणायुक्त कुमार ने उसके वध का निवारण किया, क्योंकि सत्पुरुष चन्दन के वृक्ष की तरह अपकार करनेवाले पर भी उपकार ही किया करते हैं। तब राजा ने उस मंत्री को अपने देश से बाहर निकाल दिया। जिसके अंतःकरण में मलिनता होती है, उसे दूर करने में ही भलाई है। वह कुमार चारों प्रियाओं के साथ सुख भोगते हुए कितने ही समय तक वहीं रहा। एक बार सिंहलेश्वर राजा के द्वारा पुत्रशोध की आज्ञा दिये हुए किसी राजपुरुष ने कुमार के बारे में सुना, तो वह वहां आया। उसे देखकर कुमार ने भी प्रेमपूर्वक उसका आलिंगन किया। फिर अत्यन्त हर्षित होकर अपने माता-पितादि के कुशल समाचार पूछे। तब उसने भी कहा-“हे कुमार! आपके माता-पिता और सर्व परिवार कुशल है। पर आपके वियोग का दुःख उन्हें संतप्त कर देता है। आपके माता-पिता के नेत्रों से निरन्तर अश्रुजल की बाढ़ प्रवाहित हो रही है। आपके वियोग रूपी अग्नि की ज्वाला से उनका चैतन्य नष्ट हो गया है, जिससे मानो वे लेप्यमय पुतले बन गये हैं। इस प्रकार वे कष्टपूर्वक रहते हैं। फिर प्रधान ने मुझे और अन्य सेवकों को आपकी खोज में प्रत्येक द्वीप और प्रत्येक देश में भेजा है। अतः मैंने द्वीप, आकर, ग्राम, नगरादि में चिरकाल तक भ्रमण किया, पर पुण्यरहित मनुष्य को जिस प्रकार निधि नहीं मिलती, उसी प्रकार मुझे आप नहीं मिले। अभी-अभी चारों तरफ प्रसरती हुई आपकी कीर्ति को सुनकर आप का यहां होना मुझे ज्ञात हुआ। अतः हे देव! मेरा सारा उद्यम आज सफल हो गया। अब आपके वियोग से दुःखित माता-पितादि को आपके दर्शन के आनन्द रूपी अमृतरस के योग से आश्वस्त बनाएं।"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy