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________________ 311/श्री दान-प्रदीप इच्छा से अपना तुम्बड़े का पात्र धारण किया। तुरन्त ही धनदेव ने भी सर्व इष्ट वस्तु के प्रदाता पुण्य रूपी कल्पवृक्ष को सींचने के समान सतत धाराबंध शक्करयुक्त दुध उसमें डाला। उस समय हर्ष से उसका सारा शरीर रोमांचित हो गया। वह रोमांच मानो महानंद (मोक्ष) रूपी फल को उत्पन्न करने के हेतु रूप दान रूपी कल्पवृक्ष का अंकुर हो-इस प्रकार से शोभित होने लगा। ___ एक बार धनदत्त ने भी आनन्दपूर्वक मुनियों को शुभ भाव से इक्षुरस के घड़े बहराये। पर उसने दान देते-देते कुटुम्ब की चिन्ता से तीन बार भाव खण्डित किये। फिर तुरन्त ही स्वयं अपने भावों को साधा। उन दोनों भाइयों ने बार-बार अपने दानधर्म की अनुमोदना की, क्योंकि अनुमोदना पुण्य रूपी समुद्र की वृद्धि के लिए चन्द्र की ज्योत्स्ना के समान है। हे राजा! अनुक्रम से वह धनदेव मरण प्राप्त करके मेरे रूप में स्वर्ग में देव बना है और धनदत्त मरकर इस राजपुत्र के रूप में पैदा हुआ है। औषधदान पुण्य द्वारा मुझे देवसमृद्धि प्राप्त हुई है और इस कुमार ने चार पत्नियाँ आदि सामग्री प्राप्त की है।" इस प्रकार देव बोल रहा था, तभी आकाशमार्ग से कोई चारण मुनि युगादीश को नमन करने के लिए वहां आये। पुण्य के निवासस्थान और तप के निधान उन मुनि को देखकर सभी एकदम से उठ खड़े हुए। मुनि ने जिनेश्वरों को नमन किया और सभी के आग्रह से वहां पर विराजे, क्योंकि उदार अंतःकरणयुक्त सत्पुरुष दूसरों की प्रार्थना का भंग करने से भय को प्राप्त होते हैं। फिर राजा ने उस कुमार और देव का पूर्वभव पूछा, तो उन्होंने भी वैसा ही फरमाया, जैसा देव ने कहा था। फिर कुमार ने दोनों हाथ जोड़कर मुनि को नमन करते हुए पूछा-"मैंने समुद्र का उल्लंघन किस प्रकार किया और मैं कुब्ज किस कारण से बना?" तब मुनीश्वर ने फरमाया-"जब तुम्हें मंत्री ने समुद्र में डाला, तभी उस देव ने पूर्व प्रेम के कारण तुम्हें वहां से उठाकर तापसों के आश्रम में रख दिया और यह शत्रु मंत्री तुम्हे पहचानकर तुम्हारा अनिष्ट करेगा-इसी विचार से वैसा न होने देने के लिए इसी देव ने तुम्हें कुबड़ा बना दिया। उसने सर्पदंश आदि कष्ट तुम्हारे हित के लिए ही तुम्हें दिया था, क्योंकि वर्षाऋतु जाने के बाद शरद ऋतु का सूर्य अत्यन्त तप्त होता है। पर वह जगत को प्रसन्न करने के लिए ही तपता है। तुम दोनों ने यह अद्भुत समृद्धि औषधिदान के पुण्य से ही प्राप्त की है, क्योंकि पात्रदान सर्व सम्पत्तियों का कारण है। पर तुमने पूर्वभव में दान देते समय तीन बार भाव खण्डित किये थे। उस कर्म के उदय से तुम्हे इस भव में तीन प्रियाओं का विरह और समुद्र में गिरने रूप आपत्ति प्राप्त हुई। पात्र में दिया गया थोड़ा भी दान महाफल का प्रदाता बनता है, तो संयम के उपकारक रूप प्रासुक औषधि का दान विशाल फल का प्रदाता बने तो इसमें कहना ही क्या?
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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