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________________ 302/श्री दान-प्रदीप इस प्रकार विचार करके कुमार तपस्वी की आज्ञा लेकर प्रियासहित कंथा लेकर खाट के ऊपर बैठकर उसे आदेश दिया कि जिस स्थान पर धनवती है, मुझे वहां ले जा। ___ इस प्रकार कहने के साथ ही वह खाट तत्काल कुसुमपुर के उद्यान में पहुंची। उस समय रूपवती को अत्यन्त प्यास लगी। अतः कुमार ने खाट को आकाश से नीचे उतारा। फिर कंथा और खाट सहित रूपवती को एक वृक्ष के नीचे छोड़कर शीघ्र ही जल लाने के लिए समीप में रहे हुए कुएँ के पास गया। वहां जब वह कुएँ में से पानी निकालने लगा, तभी उसके भीतर रहे हुए किसी सर्प ने मित्र की तरह मनुष्य की वाणी में उससे कहा-"हे मित्र! दया करके मुझे इस कुएँ में से बाहर निकालो। महात्मा किसी भी स्थान पर परोपकार करने में पीछे नहीं रहते।" उसे इस प्रकार के वचन बोलते देख कुमार अत्यधिक विस्मित हुआ। दयापूर्वक उसे बाहर निकालने के लिए अपना उत्तरीय वस्त्र कुएँ में डाला। उस वस्त्र के सहारे सर्प तत्काल चढ़कर बाहर आया और कुमार को ही डस लिया। सर्पजाति के लिए ऐसा कृत्य योग्य ही है। उसके विष के प्रभाव से सायंकाल में मुरझाये हुए कमल के समान कुमार का शरीर कुब्ज हो गया। ऐसा रूप देखकर खेदखिन्न कुमार ने उससे कहा-“हे सर्प! मैंने तो तुझ पर उपकार किया था, पर तुमने यह प्रत्युपकार अच्छा किया।" यह सुनकर सर्प ने कहा-"हे मित्र! तूं खेद न कर । तुम पर जब आपत्ति आय, तब तुम मेरा स्मरण करना। उस समय मैं तुम्हारा योग्य उपकार करूंगा।" ऐसा कहकर सर्प तत्काल अदृश्य हो गया। यह सब देखकर 'यह क्या?' इस प्रकार मन में अत्यन्त तर्क-वितर्क के द्वारा आकुल-व्याकुल होकर कुमार पानी लेकर अपनी प्रिया के पास पहुँचा और स्नेहपूर्वक कहा-“हे प्रिया! इस जल को ग्रहण करके अपनी प्यास शान्त करो।" पर रूपवती प्रिया ने विरूप हुए उसकी तरफ देखा भी नहीं। उसने उसे पति के रूप में पहचाना नहीं। अतः कुमार के अत्यधिक कहने के उपरान्त भी उस पतिव्रता ने उस पानी को स्पर्श तक नहीं किया। फिर कुमार खाट और कंथा लेने लगा, तो उसने उसका विरोध किया। उसने कहा कि इन वस्तुओं के स्वामी मेरे पति हैं। यह सुनकर कुमार लज्जित होते हुए खेद को प्राप्त हुआ। उस प्रिया का त्याग करके नगर में चला गया और मन में दुःखी होते हुए विचार करने लगा-"अहो! मेरे पूर्वकर्मों का विपाक कैसा अपरम्पार है? कि यह कर्मविपाक मुझे दुःख देते हुए जरा भी उद्विग्न नहीं होता। पहली प्रिया को मिलने जाते हुए यह प्रिया भी मुझसे दूर हो गयी। हहा! दैव की कैसी दुष्ट चेष्टा है? अथवा तो संपत्ति व विपत्ति महापुरुषों को ही होती है, क्योंकि क्षय और वृद्धि चन्द्र की ही होती है, ताराओं में नहीं होती।"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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