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________________ 301/श्री दान-प्रदीप गुण रूपी रत्नों की खान के समान आप जैसा वर अकस्मात् यहां आया है। अतः व्रतों को न स्वीकारनेवाली इस कन्या को हम आपको अर्पित करते हैं। अतः आप निःशंक रूप से इसे स्वीकार करके हम पर अनुग्रह करें और हमारी चिन्ता का निवारण करें।" इस प्रकार कुलपति के आग्रह से कुमार ने उस कन्या के साथ पाणिग्रहण स्वीकार किया। तब कुलपति ने शुभ दिवस देखकर विवाहोत्सव प्रारम्भ किया। कुमार के सौभाग्य से वह बुद्धिशाली कन्या तुरन्त ही कुमार पर अत्यधिक अनुरक्त बन गयी। अतः किसी भी प्रकार से एकान्त में अवसर देखकर उसने कुमार को बता दिया कि मेरे पिता के पास दो दिव्य वस्तुएँ हैं। हस्तमिलाप के समय कुमार ने कन्या का हाथ पकड़ा। उसे छोड़ने का कहने पर भी जब कुमार ने हाथ नहीं छोड़ा, तो कुलपति ने प्रीतिपूर्वक पूछा-“हे वत्स! आप अपनी इच्छानुसार कुछ भी मांगिए।" तब कुमार ने कहा-“दिव्य प्रभाव से शोभित खाट और कंथा (कामली) ये दो वस्तुएँ आपके पास हैं, जिसकी मुझे स्पृहा है। कृपया वे आप मुझे प्रदान करें।" यह सुनकर खेदयुक्त तापस ने विचार किया कि घर का भेदी ही लंका ढ़ाये। अब क्या करूं? अगर ये वस्तुएँ नहीं देता हूं, तो मेरे वचन मिथ्या साबित होते हैं। महात्मा प्राणान्त आने पर भी अपने वचनों से पीछे नहीं हटते। उन दिव्य वस्तुओं का पात्र भी इस कुमार के बिना अन्य कौन हो सकता है? पात्र को दी गयी वस्तु महागुण के लिए ही होती है।" यह विचार करके तापसपति ने दोनों वस्तुएँ कुमार को सौंप दी। फिर कहा-“हे वत्स! इन वस्तुओं का प्रभाव सुनो। यह खाट स्वयं पर आरूढ़ व्यक्ति को विद्याधर की विद्या के समान क्षणभर में आकाशमार्ग से उड़कर इच्छित स्थान पर पहुंचा देती है और इस कंथा की विधिपूर्वक पूजा करके उसके पास मांगने से कल्पवृक्ष की मंजरी के समान हमेशा सौ स्वर्णमोहरें प्रदान करती हैं।" ___ फिर रूपवती, खाट और कंथा इन तीन वस्तुओं के द्वारा साम्राज्य के कारण रूप मानो मूर्त्तिमान तीन शक्तियों (प्रभु शक्ति, उत्साह शक्ति और मंत्र शक्ति) के द्वारा कुमार शोभित होने लगा। फिर कुलपति के आग्रह से कुछ दिनों तक कुमार आश्रम में ही रहा। उसके बाद एक दिन कुमार ने विचार किया-"अहो! कर्मविपाक की कैसी विचित्रता है कि मुझे किसी स्थान पर संपत्ति प्राप्त होती है, तो किसी स्थान पर विपत्ति प्राप्त होती है। मेरी दूसरी प्रिया को उस पापी मंत्री ने ग्रहण कर रखा है। वह कहां होगी? जीवित भी है या नहीं? मुझे कुछ भी पता नहीं है। मेरी पहली स्त्री को तो निमित्तक ने जीवित बताया था। अतः अब मुझे उसको तो खोजना चाहिए।"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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