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________________ 303 / श्री दान- प्रदीप इस प्रकार धैर्य द्वारा मन के आवेश को शान्त करके कुब्ज के रूप में मानो कोई देव हो-इ -इस प्रकार से कुमार ने उस नगरी में प्रवेश किया। उधर रूपवती वन में मार्गभ्रष्ट हुई मृगी की तरह अपने पति को कुएँ के चारों तरफ खोजने लगी। उद्यान में घूम-घूमकर थकी गयी, पर कुमार का कहीं कोई पता न लगा । अन्त में दुःखित होते हुए उसी प्रियमेलक तीर्थ में आकर उन दो स्त्रियों की तरह वह भी वहां तप करने लगी । वे तीनों प्रियाएँ तीव्र तपस्या कर रही थीं । शीलोंछवृत्ति के द्वारा पारणा करतीं । त्रिकाल जिनेश्वरों की पूजा करतीं । प्राणनाथ का स्मरण करतीं । चक्रेश्वरी देवी की सेवा करतीं । निरन्तर मौनव्रत को धारण किये रहतीं। इस प्रकार वे तीनों अपना समय निर्गमन कर रही थीं । तप में तत्पर और अपने लावण्य के द्वारा देवांगनाओं को भी लज्जित करनेवाली उन तीनों को देखकर सभी लोग तर्क-वितर्क करने लगे - "क्या इस प्रभावयुक्त तीर्थ में ये विद्याधरियाँ विद्या सिद्धशोभित करने के लिए तीव्र तप कर रही हैं? या फिर श्मशान में रहनेवाले और दिशा रूपी वस्त्र से युक्त (नग्न) महादेव को छोड़कर अन्य श्रेष्ठ पति को वरने के लिए गंगा, पार्वति और कृत्तिका नामक महादेव की स्त्रियाँ तप करने के लिए आयी हैं? या फिर दैवयोग से अपने-अपने पति के वियोग से संतप्त ये कुलस्त्रियाँ अपने-अपने पति की प्राप्ति के लिए इस देवी की सेवा कर रही हैं?" इस प्रकार अलग-अलग तर्क करके लोग कौतुक से उन्हें बोलवाने के लिए अनेक उपाय करने लगे। पर पत्थर की पुतलियों के समान उनके विविध उपायों का उन तीनों स्त्रियों पर कोई असर नहीं हुआ। अहो ! उन स्त्रियों की स्थिरता कितनी अद्भुत थी? कि उन्हें बुलवाने के लिए लोगों ने श्रृंगारयुक्त, कौतुकयुक्त, हास्यक्रीड़ा से युक्त, संगीतयुक्त, अलंकारयुक्त, कामक्रीड़ायुक्त, संग्रामयुक्त, आश्चर्ययुक्त तथा काव्यविनोदयुक्त आदि अनेक प्रकार की कथाएँ कीं, पर कोई भी उन्हें बुलवा न सका। एक बार वह कुब्ज रूपी कुमार श्रीयुगादीश को नमन करने के लिए उद्यान में गया। वहां उसने अपनी तीनों प्रियाओं को देखा और आश्चर्यचकित हो गया। उसने शीघ्रता के साथ अपनी प्रियाओं को पहचान लिया। पर उन तीनों ने विद्रूप हुए अपने पति को नहीं पहचाना । उन तीनों को देखकर विस्मित होते हुए कुमार विचार करने लगा - "अहो ! मेरी तीनों प्रियाएँ कैसे स्वयं ही एक ही स्थान पर इकट्ठी हो गयी हैं? मुझे पाने की इच्छा से तापसों की तरह ये तीनों कितना कठिन व तीव्र तप इस तीर्थ में आकर कर रही हैं? अपने शील का पालन करने के लिए तीनों ने योगिनियों की तरह दुष्कर मौनव्रत को धारण किया है । अहो ! शृंगार और हास्यादि से युक्त ऐसी सुन्दर कथाएँ कहकर विदूषक इन्हें क्षुभित करने का प्रयास कर रहे हैं, पर इनमें से एक ने भी अपने व्रत का खण्डन नहीं किया है । अतः इन तीनों के शील
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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