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________________ 296/श्री दान-प्रदीप प्राप्त करते हुए अन्धकार के द्वारा मलिनता को धारण कर लिया। कुमार को विपत्ति में देखकर दयालू हुए तारागण ने कुमार का रक्षण करने के लिए अकाश में जाल बिछा लिया। ऐसी अन्धेरी रात्रि में स्थिर अंतःकरणयुक्त कुमार शरीर-चिन्ता निवारणार्थ शय्या से उठकर वाहन के प्रान्त भाग में ऊपर की ओर गया। उस समय मौका देखने में तत्पर मंत्री अवसर प्राप्त करके हर्षित हो गया। मानो अपनी आत्मा को नरक में गिरा रहा हो-इस प्रकार से कुमार को पीछे से धक्का देकर समुद्र में गिरा दिया। ऐसा दुष्ट कार्य करके मंत्री सुखपूर्वक अपनी शय्या में सो गया। दुष्ट मनवाले प्राणी अपने कुकर्म की सिद्धि में अत्यन्त सुख मानते हैं। केवल अकेला लोभ ही अग्नि की तरह मनुष्य के लिए अनर्थकारक होता है, तो फिर अत्यन्त प्रसरते कामदेव रूपी पवन से उद्धत हुआ नर क्या-क्या नहीं करता? उधर वासगृह में रही हुई चतुर राजपुत्री ने कुछ समय तक पति के आने की राह देखी, पर अत्यधिक विलम्ब हो जाने के बावजूद भी कुमार नहीं आया। अतः शंकाशील होते हुए उसने अपनी सखी के द्वारा चारों तरफ खोज करवायी और स्वयं भी खोजने लगी। पर उसे कुमार कहीं भी दिखायी नहीं दिया। तब वह उच्च स्वर में विलाप करने लगी-"अरे सेवकों! दौड़ो-दौड़ो। मेरे पति शायद कहीं गिर गये हैं।" यह सुनकर सभी लोग इकट्ठे हो गये। कपट की रचना करने में निपुण मंत्री भी उद्वेगसहित 'क्या हुआ?-क्या हुआ?' बोलते-बोलते वहां आया और सेवकों से कहने लगा-"कुमार कहां गिरे? कैसे गिरे? अरे! जल्दी-जल्दी खोज करो।" इस प्रकार कपट-वचनों के द्वारा अपनी चतुराई दिखाने लगा। तब राजपुत्री विलाप करने लगी-"हहा! कामदेव के समान आकृतिवाले! हहा! उत्तम गुणों से युक्त हे प्राणनाथ! मुझ दासी को अकेली छोड़कर आप कहां चले गये? मेरे तो एकमात्र आप ही शरण हैं।" इस प्रकार आक्रन्दन करते हुए शोक के द्वारा आकुल-व्याकुल हुई वह पतिव्रता समुद्र में झंपापात करने के लिए तैयार हो गयी। उस समय मंत्री ने उसका हाथ पकडकर कोमल शब्दों के द्वारा कहा-“हे देवी! आप इतना विलाप न करें। मन को स्थिर बनायें। अपने सेवकों द्वारा खोज करवाकर मैं अभी कुमार को आपके सामने लेकर आऊँगा। इस समुद्र का उल्लंघन करके भी कुमार को ढूंढकर लाऊँगा। कदाचित् दैवयोग से उनका मरण हो गया होगा, तो मैं आपके माता-पिता के पास आपको पहुँचा दूंगा। वहां स्वजनों की सम्मति लेकर आप अपनी इच्छा प्रमाण कुछ भी करना। पर अभी प्राणों का त्याग करना उचित नहीं है, क्योंकि कोई भी कार्य सहसा बिना विचार नहीं करना चाहिए। फिर सहसा मरण अपनाना कैसे उचित हो सकता है? मर जाने से आपको अपना पति मिलनेवाला नहीं है, क्योंकि प्राणियों की गति अपने-अपने कर्मों के कारण भिन्न-भिन्न होती है। जीवित रहने से तो कदाचित् आपका पति आपको वापस मिल जाय, क्योंकि
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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