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________________ 295/श्री दान-प्रदीप परलोक में परम लक्ष्मी का कारणभूत है। पतिव्रता धर्म का इस प्रकार से आराधन करना, जिससे अपने वंश रूपी महल के शिखर पर ध्वजा रूप बन सके।" इसके बाद प्रशस्त मुहूर्त में कुमार ने प्रिया के साथ मांगलिक कृत्य करके राजा को प्रणाम किया और अपने नगर की तरफ प्रयाण किया। उस समय राजा ने कुमार की सहायता के लिए रुद्र नामक मंत्री को कुमार के साथ भेजा और कहा कि मेरी तरह ही मानकर इनकी सेवा करना । राजा स्वयं भी समुद्र के किनारे तक उन्हें विदा करने के लिए गया। फिर अश्रुभरे नयनों से अत्यन्त कष्ट के साथ राजा वहां से लौटा। अब सिंहलसिंह कुमार प्रिया व मंत्री के साथ वाहन में बैठकर सिंहलद्वीप जाने की इच्छा से शीघ्रतापूर्वक चला। सरल हृदययुक्त कुमार ने सारा कार्यभार रुद्र मंत्री को सौंप दिया। स्वयं प्रिया के साथ अद्भुत कौतुक देखना आदि क्रीड़ाओं में लग गया। यह कुमार प्रिया के साथ वाहन के मध्य भाग में ऊँचे सिंहासन पर बैठा हुआ था। वहां वह पालक विमान में बैठे हुए इन्द्राणी के साथ इन्द्र की तरह शोभित हो रहा था। एक बार पवित्र लावण्यवाली रत्नवती को देखकर दुष्ट आशययुक्त और अल्प बुद्धियुक्त रुद्र मंत्री एकान्त में विचार करने लगा-"इस रत्नवती का मुख पूर्ण चन्द्रमा की तरह है। दोनों होंठ श्रेष्ठ परवाले के समान हैं। दाँत निर्मल मोतियों के समान हैं। हाथों व पैरों के नख मणियों के समान हैं। स्तन वैडूर्य रत्न से ढंके हुए स्वर्णकलश के समान हैं। इसीलिए लोग इसे रत्नवती के नाम से पुकारते हैं। यह योग्य भी है। यह कमल के समान नेत्रोंवाली जिस पर भी हर्षपूर्वक कटाक्ष डालती है, उसका जन्म और जीवन सफल है। तो फिर इसको जिसने स्वीकार किया है, उसके लिए तो कहना ही क्या? इस कुमार की उपस्थिति में तो यह मुझे स्वीकार ही नहीं करेगी। अतः इस कुमार को समुद्र में गिराकर इस रत्नवती को अपनी प्रिया बनाऊँ। अनेक लाख प्रमाणवाला इस वाहन में रहा हुआ सर्व द्रव्य बिना यत्न के मेरे आधीन हो जायगा। यह सारा परिवार तो पहले से ही मेरे आधीन है। फिर भी विशेष प्रकार से दान-सम्मान आदि देकर इन्हें अपना गुलाम बना लूंगा।" इस प्रकार निश्चय करके जिस प्रकार राहू चन्द्र के छिद्र को देखता है, उसी प्रकार वह दुष्टात्मा कुमार का अपकार करने की इच्छा से उसके छिद्र देखने लगा। राजा के राज्य को ग्रहण करने की इच्छावाले पुरुष की तरह उसने सर्व परिवार को दुगुना वेतन देकर अपने वश में कर लिया। 'यह पापी मेरे देखते हुए कुकर्म न करे-ऐसा विचार करके सूर्य ने अपने आपको अस्ताचल पर्वत से ढक लिया। सर्व दिशाओं ने मानो कुमार की आपत्ति को आता देखकर दुःख
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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