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________________ 297/श्री दान-प्रदीप जीवित नर ही भद्र को प्राप्त करता है। क्या आपने यह नहीं सुना?" ___ इस प्रकार माया से संस्कारित शांतिवचनों के द्वारा मंत्री ने उसे आश्वासन दिया। तब उसने मरने के विचार का त्याग किया। पर वह विरह दुःख से शोकाकुल होकर समय बिताने लगी। फिर मंत्री ने मायापूर्वक खलासियों के द्वारा समुद्र में खोज करवायी, पर कुमार का कहीं भी पता नहीं चला, क्योंकि मंत्री ने तो बहुत दूर कुमार को समुद्र में फेंका था। 'कुमार कदाचित् समुद्र के किनारे पहुँच गया होगा'-ऐसा राजपुत्री से कहकर उसने नाविकों द्वारा वाहन को तेज गति से चलवाया। मार्ग में रत्नवती के चित्त को प्रसन्न करने के लिए वह मायावी पूर्व के बचपन के परिचय के कारण प्रीतिपूर्वक आलाप आदि करने के द्वारा विविध उपाय करने लगा। एक बार रत्नवती पति के वियोग में अत्यधिक विलाप करने लगी। उस समय उस अधम मंत्री ने एकान्त में लज्जा का त्याग करके उससे कहा-“हे देवी! क्यों व्यर्थ ही इतना शोक कर रही हो? जो गये, वो तो चले ही गये। गये हुए कभी वापस लौटकर नहीं आते। अतः हे देवी! मुझ पर प्रसन्न होकर मुझे आज्ञा प्रदान करें। मैं आपकी आज्ञा के आधीन हूं। हमारे पास अत्यधिक धन है। आप नवयौवन से युक्त हैं। अतः मन को स्थिर करके मेरा कथन अंगीकार करें।" इस प्रकार शील को लूटनेवाले, कर्णों को कटु लगनेवाले और कालकूट विष के समान जहरीले वचनों को सुनकर राजपुत्री अत्यन्त संतप्त हुई। उसने अपनी बुद्धि से विचारा कि अवश्य ही इस दुरात्मा ने ही दुष्ट आशय के द्वारा मेरे पति को समुद्र में कहीं फेंक दिया है। इस दुष्ट हेतु से ही कुटिल अंतःकरणवाले इसने पहले ही दान-सन्मानादि द्वारा समग्र परिवार को अपने वश में कर लिया है। अतः अभी मैं असहाय और अबला हूं। मेरे शील को अखण्डित रखने का एकमात्र उपाय मरण ही है। पर अभी-अभी मेरा मन अत्यधिक उल्लसित हुआ है। मेरे बांये अंग स्फुरित हो रहे हैं। ये सभी शुभ चिह्न ज्ञानी की तरह मुझे थोड़े समय में प्रिय की प्राप्ति का ज्ञान करवाते हैं। अतः कदाचित् मेरे पति जीवित रूप में मुझे कहीं मिल जाय, क्योंकि पूर्व के कर्मों का उदय विचित्र होता है। अतः अभी तो शील का रक्षण करने के लिए इस दुष्ट मंत्री को ठगने का प्रयास करूं, क्योंकि कांटे को कांटे से ही निकाला जाता है। किनारे पहुंचने के बाद कदाचित् पति का मिलाप हो जाय, तो वे ही एकमात्र मेरे लिए शरण हैं। अगर उनकी प्राप्ति नहीं हुई, तो मरण ही मेरा एकमात्र शरण है। इस प्रकार विचार करके कार्य में कुशल उस राजपुत्री ने हंसकर कहा-"हे मंत्री! तुमने अपना अभिप्राय बताया, यह ठीक ही किया, क्योंकि पति की आशा का भंग होने से मुझे भी वही इष्ट है। लज्जा के कारण मैं वह सब नहीं बोल पायी। बाल्यावस्था से ही हमारे साथ-साथ रहने के कारण हमारे हृदय रूपी क्यारी में प्रीति रूपी लता उगी हुई है। वह अब
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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