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________________ 289/श्री दान-प्रदीप शीघ्र ही समुद्र में रहनेवाले रत्नों की इच्छा में अन्दर गोते लगा रहे हों। धनवती भी अपने पति के समान पाटिये का आलिंगन करके अनुकूल तरंगों के साथ समुद्र के किनारे पहुँच गयी। वहां जलकण की बरसात को बरसाती पवन की कोमल लहरों ने सखी की तरह खारे जल से दग्ध हुई धनवती को आश्वस्त किया। "मेरी तरह मेरे स्वामी भी जरूर यहां किसी स्थान पर पहुँचे होंगे"-ऐसा सोचकर उनको प्राप्त करने की इच्छा से वह चारों तरफ अपने पति को ढूंढ़ने लगी। पर उस चपल नेत्रयुक्त प्रिया ने किसी भी स्थान पर खोये हुए चिन्तामणि रत्न की तरह अपने पति को नहीं देखा। विरह से विह्वल होकर आँखों से आँसू बहाते हुए वह विलाप करने लगी-"हहा! मैंने पूर्वजन्म में सौत से ईर्ष्या आदि करने का पाप किया होगा, जिस कारण से पति के वियोग का यह दुःख मुझे प्राप्त हुआ है। अहो! इस दुस्तर अरण्य में मैं कैसे अकेली हो गयी? यहां तो माता, पिता, भ्राता या पति रूप कोई भी शरण मुझे प्राप्त नहीं है। इस प्रकार दुःख से दग्ध मेरे लिए तो अब जीना ही व्यर्थ है। पति से वियुक्त स्त्रियों के लिए एकमात्र मरण ही शरण है।" इस प्रकार विचार करके वह मरने के लिए तैयार हो गयी। पंच परमेष्टि का ध्यान करके वह जैसे ही एक वृक्ष पर अपने शरीर को बांधकर लटकाने लगी, वैसे ही मानो उसके शुभकर्म से प्रेरित काष्ठादि को लेने की इच्छा से उसके बंधु के समान कोई श्रावक आया। उस दयालू ने उसे इस प्रकार देखकर कहा-“हे भद्रे! तुम यह क्या कर रही हो? तुम्हें क्या दुःख है? तुम कौन हो? कहो।" इस प्रकार सहोदर के समान कहे हुए उसके वचनों से प्रसन्न होते हुए उसने अपना पतिवियोग आदि सारा वृत्तान्त उस श्रावक को बताया। तब उस श्रावक ने कहा-"धर्ममार्ग का स्पर्श करनेवाले पुरुषों के जिए जैसे अन्य प्राणियों का विनाश करना योग्य नहीं है, उसी प्रकार अपना विनाश करना भी योग्य नहीं है। स्वयं का विनाश करने से दुःख का क्षय नहीं होता। पर दुष्कर्म का नाश होने से ही दुःख का क्षय होता है, क्योंकि दुःख का मूल दुष्कर्म ही है। अनेक भवों में उपार्जित किये हुए दुष्कर्म सूर्य के द्वारा अन्धकार की तरह धर्म के द्वारा ही नाश को प्राप्त होते हैं। अतः सुख के एकमात्र कारण रूपी धर्म का तूं आचरण कर। उस धर्मकार्य में मैं एक भाई की तरह तुम्हारा सहयोगी बनूंगा।" यह सुनकर धनवती ने कहा-“हे भाई! आपने बिल्कुल सत्य ही कहा है। पर ऐसी दुर्दशा को प्राप्त मुझ जैसी के द्वारा धर्म का सम्यग् आराधन दुष्कर है।" तब उस श्रावक ने कहा-"तो भी तुम्हारे द्वारा दुस्साहसपूर्वक मृत्यु का वरण योग्य नहीं है, क्योंकि किसे पता है कि कहीं तुम्हारा पति जीवित ही हो। अतः मेरे वचन सुनो और उसी
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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