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________________ 290/श्री दान-प्रदीप के अनुसार आचरण करो। यहां संपत्ति के द्वारा देवनगरी के समान कुसुमपुर नामक नगर है। उसके बाहर उद्यान में स्वर्ग के विमान की लक्ष्मी को गर्वरहित करनेवाला सुन्दर श्रीआदिनाथ भगवान का चैत्य है। उसी के समीप श्रीआदिनाथ प्रभु के चरण-कमल में भ्रमरपने को प्राप्त चक्रेश्वरी देवी का मन्दिर है। वह कष्ट से पीड़ित प्राणियों की विविध कामनाओं को पूर्ण करनेवाला होने से प्रियमेलक तीर्थ के नाम से पृथ्वी पर प्रसिद्ध हुआ है। तूं वहां आकर श्री युगादीश की सेवा में तत्पर बन और चक्रेश्वरी देवी के पास दुष्कर तप का आचरण कर। अगर कहीं तुम्हारा पति जीवित होगा, तो देवी तेरी तपस्या से प्रसन्न होकर तुम्हारा उससे मिलाप करवा देगी अथवा उसका वृत्तान्त तुम्हें बता देगी। इस प्रकार राह देखते हुए अगर तेरा पति तुझे मिल जाय, तो चिरकाल तक तूं उसके साथ धर्म का पालन करना। अगर कदाचित् अकुशल हो जाय, तो मरना तो तुम्हारे हाथ में ही है। तब तक का किया हुआ तप तुम्हारे परलोक का भाता बनेगा।" उसके इस प्रकार के युक्तियुक्त वचन सुनकर धनवती ने उसे अंगीकार कर लिया। कौन पण्डित अपना हित करनेवाले वचन को अंगीकार नहीं करेगा? वह श्रावक अपने साथ भोजन लेकर आया था। उसने धनवती को भोजन करवाया। फिर प्रसन्नतापूर्वक उसे प्रियमेलक तीर्थ में पहुंचा दिया। वहां धनवती ने बावड़ी में स्नान किया। श्रीऋषभदेव भगवान की विधिपूर्वक पूजा की और चक्रेश्वरी देवी को नमन करके कहा-'हे देवी! जब तूं मुझे मेरे पति से मिलवायेगी या उसके समाचार बतायेगी, तभी मैं भोजन करूंगी, अन्यथा नहीं करूंगी। यह मेरा निश्चय है।" इस प्रकार प्रतिज्ञा ग्रहण करके वह एकाग्र चित्त से वहां रहने लगी। फिर तीसरी रात्रि में अदृश्य रीति से आकाशवाणी हुई–"हे सुन्दरांगी! यहीं पर युगादीश की सेवा करते हुए तुझे तेरा पति मिलेगा। तूं अपने मन में जरा भी खेद मत करना। अब तूं भोजन ग्रहण कर।" इस प्रकार कर्ण में अमृत समान वाणी का श्रवण करके उसका मन अत्यन्त हर्षित हुआ। पति का मिलाप होने तक उसने मौनव्रत का ग्रहण किया। दुष्कर तप भी करने लगी। 'शीलोंछ वृत्ति के द्वारा आजीविका करने लगी। इस प्रकार जिनेश्वर देव की सेवा में तत्पर होकर वह अपना समय निर्गमन करने लगी। उधर सिंहलसिंह कुमार भी लकड़ी का पाटिया पकड़कर समुद्र को तैरकर उसके किनारे रहे हुए वन में विश्रान्ति लेने के लिए बैठा और विचार करने लगा-"घर में मनुष्यों का 1. खेतादि स्थानों पर बिखरे हुए अनाज के दानों को बीनकर उससे आजीविका का निर्वाह करना अथवा अपरिचित गहस्थों के घर से फेंकने योग्य तुच्छ अन्न मांगकर आजीविका करना शीलोंछवृत्ति कहलाता है।
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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