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________________ 288/श्री दान-प्रदीप और मुझ पर अत्यन्त प्रेम धारण करनेवाली मेरी प्रिया अकस्मात् मेरे विरह रूपी अग्नि के ताप को प्राप्त करके कदाचित् मर न जाय, जिससे मुझे स्त्री-हत्या का पाप लग सकता है। अतः मुझे मनोहर वाणी के द्वारा अपनी प्रिया को समझा-बुझाकर जाना चाहिए।" ___ ऐसा विचार करके वह कुमार तुरन्त शयनगृह में गया। उसे देखकर उसकी प्रिया अत्यन्त प्रसन्न हुई और उठ खड़ी हुई। उसने कुमार को आसन प्रदान किया। उस पर बैठते हुए कुमार ने कहा-“हे देवी! मैं कौतुक देखने की इच्छा से देशान्तर जाना चाहता हूं। तुझ पर मेरी प्रीति की अधिकता के कारण मैं बहुत जल्दी ही वापस लौट आऊँगा। तब तक तुम यहीं मेरे माता-पिता की सेवा में सावधान होकर रहना।" यह सुनकर उसके नेत्र अश्रुओं से भर गये। अत्यन्त खेदयुक्त वाणी में उसने कहा-"हे स्वामी! आपके बिना यहां एक क्षण भी रहना मेरे लिए शक्य नहीं है। आपका भी मुझे यों छोड़कर अन्यत्र जाना युक्त नहीं है। क्या चन्द्र चन्द्रिका को छोड़कर कभी भी अन्य द्वीप में जाता है?" तब कुमार ने फिर से प्रिया से कहा-“हे देवी! तुम्हारा शरीर कोमल होने से तुम मार्ग में पड़नेवाले शीत, ताप आदि कष्टों को किस प्रकार सहन कर पाओगी? वाहन के बिना तुम मार्ग में पैदल किस प्रकार चल पाओगी? अतः तुम यहीं रहो। साथ आकर मेरा पगबंधन मत बनो।" यह सुनकर वह भी बोली-“यहां महल में रहकर मुझे आपके विरह से जितना कष्ट होगा, उतना कष्ट मार्ग में आपके साथ चलने से मुझे नहीं होगा। अतः आपके बिना मैं यहां नहीं रहनेवाली हूं| शरीर की छाया की तरह मैं आपके साथ ही रहूंगी और आपका पगबंधन कभी नहीं बनूंगी।" इस प्रकार का उसका निश्चय जानकर कुमार प्रिया को साथ लेकर रात्रि के अन्धकार का फायदा उठाकर गुप्त रूप से जल्दी से नगर के बाहर निकल गया। अनुक्रम से चलते हुए वे लोग समुद्र के किनारे पहुँच गये। वहां किसी व्यापारी का वाहन चलने की तैयारी में था। उसका भाड़ा तय करके वह अपनी प्रिया के साथ उसी वाहन में बैठ गया। फिर मूर्तिमान वायु की तरह वह वाहन वेगपूर्वक त्वरा से चलने लगा। मार्ग में कुमार अपनी प्रिया को समुद्र के विविध आश्चर्य दिखाने लगा। आगे जाते हुए कल्पान्त काल की वायु के समान दुष्ट वायु के झंझावात में पड़ने से वह वाहन टूट गया। उसी के साथ वाहन में बैठे हुए लोगों का पूर्वजन्म का शुभकर्म भी भंग हो गया। उस समय कितने ही लोगों ने हाथ में आये हुए लकड़ी के पाटियों को मित्र की तरह दोनों हाथों से आलिंगन करके समुद्र के किनारे पहुँच गये। वाहन के कितने ही लोग समुद्र के भीतर ही इस प्रकार समा गये, मानो लोभ की आकुलता के कारण
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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