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________________ 19/श्री दान-प्रदीप रखा था। कुछ राजा अभी भी आ–आकर वहां उतर रहे थे। इस प्रकार कुमार ने हजारों राजाओं को वहां देखा। पृथ्वी पर आये हुए स्वर्ग-मण्डप के समान स्वयंवर-मण्डप को भी उसने देखा। उस मण्डप का तोरण दिशा रूपी स्त्रियों के रत्नमय आभूषणों की शोभा को धारण करता था। कन्या की प्रतिज्ञा को जाहिर करते हुए राजपुरुष नगर के मध्य पटह बजा रहे थे, जिसे कुमार ने सुना। स्थान-स्थान पर हर्षमय उत्सव की परम्पराएँ स्वर्गपुरी से स्पर्धा कर रही थीं। यह सब देखकर मेघनादकुमार आश्चर्यचकित हो रहा था। उसी समय महल के गवाक्ष में बैठी हुई राजकन्या का किसी ने अपहरण कर लिया। कन्या को वहां न पाकर अत्यन्त घबरायी हुई व दुःखित दासियों ने रोते-रोते राजा के पास जाकर पुकार की-“हे स्वामी! आपकी कन्या का किसी अदृश्य पुरुष ने अपहरण कर लिया है।" यह सुनकर राजा वजाहत के समान निष्प्राण-सा हो गया। फिर थोड़ा सम्भलकर तुरन्त सैनिकों को चारों दिशाओं में कन्या की खोज करने के लिए भेजा। कन्या का मिलना तो दूर रहा, उसके समाचार तक प्राप्त नहीं हुए। विद्वान निमित्तज्ञ भी कुछ बता न पाये। तब उस कन्या के विरह से उत्पन्न दुःख रूपी शंकू से पीड़ित माता-पिता, स्वजनादि उच्च स्वर में इस प्रकार रुदन करने लगे-"स्वभाव से निर्मल, बुद्धि से सरस्वती को जीतनेवाली और सर्वगुण-संपन्ना हे पुत्री! किस पापी ने तेरा हरण किया है? हे पुत्री! तुझे वरने के लिए उत्सुक सभी राजा यहां आये हुए हैं। फिर स्नेहयुक्त हम सबको और उन सबको छोड़कर हे पुत्री! तूं कहां चली गयी है? तेरे बिना निराश होकर व क्रोधित होकर ये सभी राजा कृपण मनुष्य के घर से याचकजनों की तरह हमारी निन्दा करते हुए इस स्वयंवर से चले जायंगे। हा! हा! यह नगर, यह महल, यह मण्डप और यह महोत्सव तेरे बिना अरण्य की तरह शून्य हो गये हैं। __ हे निर्लज्ज, पापी, दुष्ट विधाता! तूंने यह क्या किया? ऐसे समय में हमारी कन्या का अपहरण क्यों किया? हे दुष्टबुद्धि दैव! हमने तुम्हारा क्या अपराध किया था कि जिससे हमारे मनोरथों को निर्मूल कर दिया? हमने पूर्वभव में जरूर ईर्ष्या से किसी के मनोरथ तोड़े होंगे, अन्यथा हमारे मनोरथों पर इस तरह तुषारापात नहीं होता।" इस प्रकार धरती और आकाश को द्रवीभूत करते हुए समग्र स्वजन-वर्ग चौधार अश्रुपात करने लगे। उस समय अत्यन्त शोक के कारण हृदय में शल्य-युक्त होने पर भी दुःख–संतप्त राजा ने विचार किया-"अहो! मुझ पर विधाता की इतनी प्रतिकूलता है कि उसने मेरे मनोरथों को ही जड़ से उखाड़ फेंका है। आये हुए इन सभी राजाओं को मैं क्या मुँह दिखाऊँगा? उन्हें क्या कहकर वापस लौटाऊँगा?" इस प्रकार राजा को दुःखित देखकर उनके मुख्य प्रधान ने कहा-“हे देव! सामान्य
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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