SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 29
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 18/श्री दान-प्रदीप आसक्त हो गया। उसके बाद राजकुमार ने उस पथिक का सन्मानादि करके उसे रवाना किया और अपने महल में लौट आया। रात्रि में उसे राजकन्या के दर्शन की उत्कण्ठा में नींद ही नहीं आयी। उसने विचार किया-"अहो! उस कन्या की कला-कुशलता किसे आश्चर्यकारक नहीं लगेगी? उसने अपने वर की परीक्षा के लिए विषम प्रतिज्ञा की है। जिस पुरुष ने इस सार्थक नामयुक्त रत्नगर्भा वसुन्धरा को चारों तरफ से नहीं देखा, उसका जन्म कूपमण्डुक की तरह निष्फल है। विविध देशों के भ्रमण रूपी कसौटी पर कसे बिना विवेकी पुरुष के भाग्य-स्वर्ण की यथार्थ परीक्षा नहीं हो सकती। जो पुरुष केवल अपने ही घर में शूरवीर होता है, उसकी कीर्ति दुनिया में प्रसृत नहीं होती। अपने ही स्थान पर स्थिर रहे हुए सूर्य की प्रभा क्या कभी भुवन को प्रकाशित कर सकती है?" इस तरह विचार करके साहसिक पुरुषों में प्रमुख वह राजकुमार पितादि से छिपकर अकेला ही घर से बाहर निकल गया। चलते-चलते देश, नगर, ग्रामादि का उल्लंघन करते हुए एक दिन यमराज के क्रीड़ाघर के समान भयंकर अरण्य में पहुँचा। वहां श्रम से श्रान्त होने के कारण रात्रि में निद्राधीन हो गया। मध्यरात्रि में उसके पास साक्षात् यमराज के समान एक राक्षस प्रकट हुआ। बड़े-बड़े दाँतों के कारण उसका मुख अत्यन्त विकराल प्रतीत होता था। मस्तक पर रहे हुए पीले केशों के कारण वह डरावना लग रहा था। उसके नेत्र लाल थे और एवं शरीर विशाल पर्वत की भाँति लम्बा-चौड़ा था। उसने उद्धत होते हुए कुमार से कहा-"अरे मनुष्य! तूं अपने इष्टदेव का स्मरण कर ले। क्षुधा से आर्त होने के कारण मेरा पेट पाताल में चला गया है। अतः मैं तेरा तुरन्त ही भक्षण करूंगा।" यह सुनकर कुमार ने धैर्य धारण करके निर्भयतापूर्वक कहा-“हे राक्षस-श्रेष्ठ! तूंने अपने कुल के योग्य ही वचन कहे हैं। अगर स्वयं ही नाशवान मेरे इस शरीर के द्वारा तुम्हारी क्षुधा-तृप्ति होती है, तो मैं इस शरीर के द्वारा क्यों न पुण्य कमाऊँ? पर अभी तो मैं चम्पानगरी की राजकन्या की प्रतिज्ञा पूर्ण करके उसके साथ विवाह की उत्कण्ठा मन में लिये हुए जा रहा हूं। वहां मैं कृतार्थ होऊँ या अकृतार्थ-लौटते समय वापस तेरे पास जरूर आऊँगा। उस समय तुम अपने मनोरथ अवश्य पूर्ण करना । मैं अपने वचनों का प्राणान्त होने तक अवश्य ही पालन करूंगा। यह तुम निश्चय जानो।" ___ कुमार के वचनों को सुनकर राक्षस आश्चर्यचकित होकर कहने लगा-"ठीक है, तुम सुखपूर्वक जाओ। तुम्हारा मार्ग निर्विघ्न हो। तुम अपने साध्य को अवश्य ही साधोगे। मेरा निवास यहां नजदीक ही है। अतः तुम उदारता के साथ लौटकर वापस आना।" इस प्रकार राक्षस की अनुज्ञा लेकर कुमार वहां से आगे चला। शीघ्र ही वह अपने इष्ट स्थान चम्पानगरी में पहुँचा। वहां अनेक राजाओं ने नये-नये आवासों में अपना डेरा जमा
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy