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________________ 287/ श्री दान-प्रदीप के समान राजा को पितृतुल्य मानती है। उसके बाद जब कुमार राजा को नमन करने के लिए आया, तब राजा ने उससे कहा-"हे वत्स! बाहर घूमने से तेरा शरीर क्लेश को प्राप्त होता है और इच्छानुसार अटन करने से सीखी हुई कलाएँ भी विस्मृत हो जाती हैं। अतः तुम घर पर ही रहकर कलाओं का अभ्यास किया करो।" यह सुनकर पिता की आज्ञा से उसने दो-तीन दिन स्वर्ण के पिंजरे में हंस की तरह अपने ही घर के भीतर रहकर क्रीड़ा की और फिर बाहर निकला। तब दरवाजे पर खड़े प्रतिहार ने उसका निषेध करते हुए कहा-"हे स्वामी! राजा ने आपको घर पर ही रहने की आज्ञा दी है।" यह सुनकर कुमार चित्त में चमत्कृत हुआ। उसने आग्रहपूर्वक स्पष्ट सविस्तार हकीकत पूछी। तब द्वारपाल ने सारी बात सत्य रूप में व स्पष्ट रूप में बतायी। यह सुनकर कुमार के नेत्र लज्जा से मन्द हो गये। उस प्रतिहार को वाणी के द्वारा योग्यता प्रमाण संतुष्ट करते हुए वह घर के भीतर लौट आया। __फिर वह बुद्धिमान विचार करने लगा-"अहो! कर्म के उदय की विचित्रता आश्चर्यकारक है कि जिससे दूषित धातु की तरह मेरे गुण भी दोष की प्राप्ति के लिए है। अनर्थ के स्थान रूप मेरे इस सुन्दर रूप को धिक्कार है! कि जिससे इस बंधन रूपी आपत्ति को मैं प्राप्त हुआ हूं| अहो! पिता की चतुराई बेहद है। उनकी गम्भीरता अद्भुत है, क्योंकि उन्होंने मुझे बहुमानपूर्वक स्वेच्छा से भ्रमण करते हुए रोका है। अन्य पुत्र पिता को प्रसन्नता प्रदान करते हैं, पर मैंने तो पुरजनों का उपालम्भ दिलवाकर उनको चित्त को संतप्त किया है। आज से मेरा नगर के अन्दर भ्रमण करना योग्य नहीं है, क्योंकि पिता की आज्ञा का लोप करने से पाप लगता है। पर बांधे हुए पशु की तरह मैं कितने दिन घर में निर्गमन करूंगा? अतः कलंकयुक्त पुरुष की तरह मेरा परदेशगमन ही कल्याणकारी है। मनुष्य की आत्मा जब तक स्वर्ण की तरह परदेश रूपी कसौटी पर नही कसी जाती, तब तक उसकी कुछ भी कीमत नहीं है। कहा है कि पृथ्वी पर पर्यटन करने से उत्कृष्ट संपत्ति प्राप्त होती है, विद्वानों से परिचय बढ़ता है, विविध प्रकार की विद्या प्राप्त होती है, यश का विस्तार होता है,मन का धैर्य बढ़ता है, अलग-अलग भाषा का ज्ञान होता है और अपनी कलाओं पर प्रतीति बढ़ती है। पृथ्वी का निरीक्षण करनेवाले को क्या-क्या लाभ नहीं होता?" इस प्रकार का मन में निश्चय करके वह बुद्धिमान कुमार ज्यों ही परदेशगमन के लिए रवाना होने लगा, तभी उसे अपनी प्रिया की याद आयी। उसने विचार किया-"नवविवाहिता
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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