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________________ 282 / श्री दान- प्रदीप हैं। इस देशविरति धर्म के तेरह सौ करोड़ से भी अधिक भेद हैं । अतः विवेकीजनों के लिए समकित सहित यह धर्म सुखपूर्वक सेवन करने लायक है। इस प्रकार सुनकर राजा ने गुरु के पास श्रावकधर्म अंगीकार किया । विद्वान व्यक्ति कोई भी व्रत-नियमादि अपनी शक्ति के अनुसार ही धारण करते हैं। उसकी पत्नियों ने भी हर्षपूर्वक धर्म अंगीकार किया। जो स्त्री पति के सदाचरण का अनुसरण नहीं करती, वह खराब स्त्री कहलाती है। उसके बाद राजा मुनिराजों को नमस्कार करके घर की तरफ लौट गया। मुनि भी अनुक्रम से अपने गुरु को खोजकर उनके पास लौट गये। राजा विशुद्ध रूप से श्रावकधर्म का पालन करने लगा, क्योंकि उत्तम पुरुष अंगीकार किये हुए व्रत का पालन करने में प्रमाद नहीं करते। उसके बाद वह राजा रत्नवीर मरकर तुम रत्नपाल राजा के रूप में पैदा हुए हो । श्रावकधर्म के प्रभाव से तुम्हें यह राज्य - ऋद्धि प्राप्त हुई है। तुम्बीपात्र मात्र में जल का दान करने से तुम्हें यह रसतुम्बी प्राप्त हुई है, क्योंकि सुपात्र को दिया गया थोड़ा भी दान महान सम्पत्ति प्रदाता बनता है। वह सिद्धदत्त तापसव्रत का पालन करके तुम्हारा मंत्री जय बना है, क्योंकि अज्ञान तप का फल इतना ही होता है। तुमने उसका वाहन बारह दिन तक रोका था । अतः इस भव में उसने तुम्हारा राज्य बारह वर्ष तक भोगा। श्रीदेवी आदि जो नौ स्त्रियाँ तुम्हारे पूर्वभव में थीं, वे ही इस भव में शृंगारसुन्दरी आदि स्त्रियाँ बनी हैं। इस श्रृंगारसुन्दरी ने इस भव से सौ भव पूर्व कायोत्सर्ग में खड़े किसी मुनि पर धूल फेंककर उपद्रव किया था, उसी कर्म के द्वारा दुःसह वेदना प्राप्त हुई । कोटि जन्मों में किये गये कर्मों का भोग किये बिना छुटकारा नहीं है । धनदत्त का जीव मरकर परदेशी श्रावक बना, जिसकी तुमने सेवा की। वह इस भव में मरकर देव बना और उसने तुम पर अनेक उपकार किये । पूर्वजन्म में कनकमंजरी ने अपने सेवक को 'अरे कोढ़ी ! काम क्यों नहीं करता?' तथा गुणमंजरी ने 'अरे अन्धे ! क्या तुझे नहीं दिखता ?' - इस प्रकार आक्रोशपूर्वक कहा था, उस कर्म के द्वारा इस जन्म में उन दोनों की ऐसी दुर्दशा हुई । वचन के द्वारा बांधा हुआ कर्म भी काया के द्वारा ही भोगा जाता है। हे रत्नपाल राजा! सुपात्र को किये गये जलदान के फलस्वरूप तुम्हारा कल्पवृक्ष जन्म - पर्यन्त अत्यन्त अद्भुत मनुष्य संबंधी सुख-सम्पत्ति की परम्परा के द्वारा पुष्पयुक्त बना है और अब शीघ्र ही तुम्हें मोक्षसुख रूपी लक्ष्मी के द्वारा फलदायी बनेगा ।" - इस प्रकार अमृत झरती गुरुवाणी का श्रवण करके उत्कृष्ट वैराग्य रंग को प्राप्त करके प्राणियों की शुभाशुभ कर्मस्थिति को जानकर रत्नपाल राजा ने अपने साम्राज्य पर पुत्र को स्थापित करके श्रेष्ठ विशाल उत्सवपूर्वक नौ ही स्त्रियों के साथ दीक्षा अंगीकार की। उन राजर्षि ने अनेक वर्षों तक निरतिचार चारित्र का पालन करके सैकड़ों उग्र तपस्याओं का
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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