SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 294
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 283/ श्री दान-प्रदीप आचरण करके सभी स्त्रियों के साथ देवगति को प्राप्त किया। वहां से च्यवकर महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होकर मोक्षपद को प्राप्त करेंगे। __हे भव्य प्राणियों! इस प्रकार सत्य विचारों के द्वारा मनोहर और मुनि को जलदान करने रूप पुण्य के द्वारा दैदीप्यमान श्रीरत्नपाल नामक राजा का मनोहर व अद्भुत चरित्र सुनकर उस जलदान में निरन्तर विधिपूर्वक प्रयत्न करो, कि जिससे समग्र लक्ष्मी तुम्हें वरने के लिए तत्काल उत्सुकता धारण करे। || इति अष्टम प्रकाश ।। 9 नवम प्रकाश जिन्होंने जीवानन्द के भव में मुनि की चिकित्सा करने के द्वारा अपने भावरोग की चिकित्सा की थी, वे युगादीश आदिनाथ लक्ष्मी के लिए हों। अब औषधदान नामक धर्मार्थ (उपष्टम्भ) दान में रहा हुआ छठा भेद कहा जाता है। उससे अक्षय सुख प्राप्त होता है। मुनियों के धर्म आराधन में मुख्य साधन शरीर ही है। वह शरीर अगर व्याधिरहित हो, तो धर्म का आराधन अच्छी तरह से हो सकता है। मुनीश्वरों को भी पूर्वोपार्जित कर्मों के द्वारा व्याधि होना संभव है। उस व्याधि के नाश के लिए बुद्धिमान पुरुषों को विधिप्रमाण औषध का दान मुनियों को करना चाहिए। उदार बुद्धि से युक्त जो पुरुष हर्षपूर्वक साधुओं की बंधुओं के समान चिकित्सा करता है, वह पुरुष वास्तविक रीति से धर्मतीर्थ का ही उद्धार करता है-ऐसा जानना चाहिए। धर्मसंबंधी सब दानों में औषधदान की ही मुख्यता है, क्योंकि अरिहन्तों ने इसके माहात्म्य को उत्कृष्ट बताया है। इस विषय में आगमों में कहा है : "हे भगवन्! जो ग्लान साधु की वैयावृत्य करता है, वह पुरुष धन्य है या जो आपके दर्शन अंगीकार करता है, वह पुरुष धन्य है?" "हे गौतम! जो पुरुष ग्लान की परिचर्या करता है, वह मेरे दर्शन को ही अंगीकार करता है और जो मेरे दर्शन को अंगीकार करता है, वह ग्लान की परिचर्या करता है, क्योंकि अरिहन्त के दर्शन में आज्ञा की शरण करना ही सार-तत्त्व है। अतः हे गौतम! ऐसा कहा जाता है कि
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy