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________________ 281/श्री दान-प्रदीप क्रमपूर्वक विशेष भक्ति के साथ वन्दन किया। मुनियों ने भी पापनाशक धर्माशीष के द्वारा उन्हें प्रसन्न किया। फिर उनमें से ज्येष्ठ मुनिराज ने राजा को पुण्यमार्ग का उपदेश दिया "सभी जीव सुख की अभिलाषा करते हैं और दुःख से द्वेष करते हैं। एकान्त रूप से सुख की प्राप्ति और दुःख का क्षय केवल मोक्ष में ही है। उस मोक्ष को प्राप्त करने के दो मार्ग सर्वज्ञों ने अच्छी तरह से बताये हैं। उसमें पहला मार्ग यतिधर्म है, जिसमें सर्व सावध व्यापारों का त्याग होता है। उस यतिमार्ग अर्थात् क्षमादि दस प्रकार के धर्मों को यथार्थ रूप से प्राप्त प्राणी एक अन्तर्मुहूर्त मात्र में भी मरुदेवी माता की तरह मोक्षपद को प्राप्त करता है। पर पाँच मेरुपर्वत के समान पाँच महाव्रत-जिन्हें पूर्व में महाधीर पुरुषों ने धारण किया था, पर कायर पुरुष अर्थात् सुखशील पुरुषार्थहीन पुरुष के द्वारा धारण करना अत्यन्त कठिन है। पृथ्वी के भार की तरह अठारह हजार शीलांग के भार को वहन करने में कौन पुरुष सक्षम हो सकता है? देव, मनुष्य और तिर्यंचकृत भयंकर उपसर्गों को, बुभुक्षादि बावीस दुःसह परीषहों को और जगत पर जय प्राप्त करने में प्रवीण तथा चक्रवर्ती और इन्द्रादि के द्वारा भी अजेय राग-द्वेष रूपी विशाल सुभटों को जीतने में कौन समर्थ हो सकता है? इसी कारण से महा धैर्यवान, स्वशरीर में अपेक्षा-रहित और दृढ़व्रतधारी पुरुष ही इस मार्ग पर जाने में समर्थ होते हैं। दूसरा मार्ग श्रावकधर्म का है। इसमें देश से सावध व्यापार का वर्जन है। इस धर्म को भी वही प्राणी प्राप्त कर सकता है, जो अत्यन्त लघुकर्मी होता है, क्योंकि आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कर्मों की स्थिति जब एक कोटाकोटि सागरोपम से भी न्यून हो, तब भव्य प्राणी समकित को प्राप्त करता है। उस स्थिति में से भी पल्योपम पृथक्त्व अर्थात् दो से नौ पल्योपम की स्थिति का क्षय करे, तब शुद्ध परिणाम होने से देशविरति प्राप्त हो सकती है। इस विषय में आगम में कहा है: सम्मत्तम्मी(म्मिउ) लद्धे पलिय पहुत्तेण सावओ होइ। चरणोवसमखयाणं, सागरसंखंतरा हुति।। भावार्थ:-समकित पाने के बाद नौ पल्योपम बीत जाने के बाद श्रावकत्व प्राप्त होता है। उसके बाद संख्याता सागरोपम बीत जाने के बाद चारित्रावरणीय कर्म का क्षयोपशम होता है अर्थात् क्षायोपशमिक भाव रूपी सर्वविरति चारित्र प्राप्त होता है। कोई-कोई विरले श्रावक ही इस देशविरति धर्म का आराधन करके एकावतारी अर्थात् एक भव देव संबंधी करके फिर मनुष्य भव प्राप्त करके मोक्ष जाते हैं। उत्कृष्टतः तो देशविरति का पालन करनेवाले आठ भव के भीतर आठों दुष्ट कर्मों का क्षय करके सिद्धि प्राप्त कर लेते
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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