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________________ 17 / श्री दान- प्रदीप पथिक ने कहा- "हे पृथ्वीपति ! चम्पानगरी में धनदत्त नामक श्रेष्ठी निवास करते हैं । मैं उनका सुधन नामक पुत्र हूं। शत्रुंजय तीर्थ की यात्रा करने के लिए निकला हूं, क्योंकि उस तीर्थ की यात्रा द्वारा प्राणी अपना जन्म पवित्र करते हैं । " कुमार ने कहा - "हे पान्थ ! राह में कहीं कोई विशेष बात देखी हो, तो बताओ ।" उसने कहा—“हे कृपानाथ! अभी चम्पानगरी में मदनसुन्दर नामक राजा राज्य करते हैं। अतिशय सौन्दर्य के कारण उनका नाम सार्थकता को धारण करता है। उस राजा के शील-संपन्न प्रियंगुमंजरी नामक महारानी हैं। उन दोनों के अत्यन्त लावण्ययुक्त मदनमंजरी नामक एक कन्या है । उस कन्या ने अभी-अभी नया-नया दोषों को सजीवता प्रदान करनेवाला यौवन प्राप्त किया है। वह दिनों-दिन अपने सर्वांग में गुणों के उदय को ही धारण करती है। वर्णन करने में अशक्य लावण्यादि असमान - असाधारण गुणलक्ष्मी को धारण करती हुई उस कुमारी के स्वरूप का वर्णन करनेवाले सभी कवि असत्य माने जाते हैं। कला की कुशलताओं को धारण करनेवाली वह कुमारी मानो साक्षात् सरस्वती देवी के रूप में स्वर्ग से धरा पर उतरी हो और सौभाग्य के द्वारा वह साक्षात् लक्ष्मी ही प्रतीत होती है । इस प्रकार वह कुमारी शोभित होती है । दुर्भागी, दुर्बुद्धिमान और दुःशीलयुक्त पतियों के योग से अत्यन्त दुःखित अन्य स्त्रियों को देखकर उस कन्या ने प्रतिज्ञा की है कि जो पुरुष विस्तृत व्याकरण, ज्योतिष, शिल्पशास्त्र, सर्वभाषा और धनुर्विद्या आदि समस्त कलाओं का ज्ञाता होगा, उस वर के साथ मैं विवाह करूंगी। उसके पिता राजा ने उसकी प्रतिज्ञा को जानकर चारों दिशाओं में खोजबीन करवायी, पर उसके योग्य वर प्राप्त न होने पर अपने महामंत्री के साथ विचार करके स्वयंवर का आयोजन किया है। ऐसा स्वयंवर मण्डप बनवाया है, मानो स्वर्ग से विमान ही उतरा हो। वह मण्डप ऐसा शोभित हो रहा है, मानों कन्या के गुण रूपी लक्ष्मी की क्रीड़ा का स्थान हो । स्वयंवर मुहूर्त आज से ठीक एक महीने के बाद का है । राजाओं को बुलवाने के लिए उस राजा ने सभी जगह अपने दूत भेजे हैं । आगत राजाओं के रहने के लिए उस राजा ने अपने चित्त के समान विशाल व उत्तम जनवासे बनवाये हैं। उनके भोजन के लिए मनोहर अन्न और अश्वादि के लिए घास के ढ़ेर लगवाये हैं । वे ढ़ेर इतने ऊँचे हैं, मानो कन्या की कीर्त्ति रूपी लक्ष्मी की क्रीड़ा के पर्वत हों । " इस प्रकार की वार्त्ता उस पथिक के मुख से सुनकर राजकुमार आश्चर्यचकित हुआ । अपनी ही कलाओं के अनुकूल उस कन्या की प्रतिज्ञा को जानकर उस पर मन ही मन
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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