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________________ 16/ श्री दान-प्रदीप शुद्ध दानधर्म का आराधन करता है, वह मेघनाद नामक राजा की तरह सर्व समृद्धि प्राप्त करके अनुक्रम से मोक्षपद को प्राप्त करता है। यथा : मेघनाद राजा की कथा __इस पृथ्वी पर जम्बू नामक एक द्वीप है। उस द्वीप में अपनी लक्ष्मी के द्वारा सभी द्वीपों को पराजित करता हुआ मेरुपर्वत रूपी एक ऊँचा जयस्तम्भ है। उसी जम्बूद्वीप में भरत नामक एक क्षेत्र है। उसमें रहे हुए लोग स्वर्ग व मोक्ष रूपी धान्यलक्ष्मी को जिनेश्वर की वाणी रूपी जल के सिंचन द्वारा वृद्धिंगत करते हैं। उस भरत क्षेत्र में चैत्यों द्वारा सत्पुरुषों को आनन्द प्रदान करनेवाली रंगावती नामक नगरी थी। उसकी तुलना में देवपुरी अमरावती का वैभव फीका प्रतीत होता था। उस नगरी में श्रेष्ठ बुद्धि से युक्त लक्ष्मीपति नामक राजा राज्य करता था। वह सभी पुरुषों में उत्तम होने से अपने नाम को सार्थक करता था। उसके कमला नामक रानी थी। जैसे स्वर्णालंकार को मणि शोभित करती है, वैसे ही चन्द्रकला की तरह उज्ज्वल उसका शील उसके रूप-सौन्दर्य को शोभित करता था। उसके मेघनाद नामक एक पुत्र था। उसकी बुद्धि न्याय के विषय में आदरयुक्त थी। विधाता ने उसे सर्व गुणों का निधान बनाया था। जैसे लक्ष्मी सदाचार का आश्रय लेती है, वैसे ही सभी कलाएँ मानो परस्पर स्पर्धा करते हुए एक ही वक्त में एक साथ कुमार को आश्रय बनाकर रही हुई थीं। मानो पृथ्वी पर बृहस्पति का शुभागमन हुआ हो, इस प्रकार वह कुमार व्याकरणादि चौदह निर्मल महाविद्याओं का ज्ञाता था। छत्तीस प्रकार के दण्डायुध की कला में उसने ऐसा परिश्रम किया था कि साक्षात् इन्द्र स्वयं युद्ध करने आया हो, तो उसे कुमार तृणवत् भी न माने। खेदहीन चित्तयुक्त वह कुमार धनुर्विद्या में तो इतना माहिर था कि इन्द्र का पुत्र अर्जुन भी उसके सामने विवश हो जाय। वह तिर्यंचों व मनुष्यों की सभी विषम भाषाओं में भी देवताओं की तरह कुशलता को प्राप्त था। उसने बाण की कला का निरन्तर इस तरह अभ्यास किया था कि शब्दवेधियों में तो उसे प्रथम स्थान प्राप्त था। काष्ठ की विविध व अद्भुत शिल्प-विद्याओं में वह इतना अधिक प्रवीण था कि देवों के शिल्पी विश्वकर्मा भी उसे अपना विजेता मानकर पृथ्वी से भागकर मानो स्वर्ग में चले गये थे। विशिष्ट बुद्धियुक्त उस कुमार ने अष्टांग-निमित्त शास्त्र का अच्छी तरह से अध्ययन किया था। अतः वह तीनों काल की घटनाओं को अच्छी तरह से जान सकता था। दुनिया में ऐसी कोई रत्न की जाति नहीं, जो रोहणाचल पर्वत पर न हो, उसी तरह जगत में ऐसी कोई कला न थी, जिसे कुमार न जानता हो। एक बार मेघनाद अपने मित्रों के साथ उद्यान में गया हुआ था। वहां उसने किसी विदेशी मुसाफिर को बैठे हुए देखकर पूछा-“हे पथिक! तुम कहां से आये हो?"
SR No.022019
Book TitleDanpradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherGuru Ramchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages416
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size37 MB
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